लक्ष्मी
प्राप्ति के लिए एक सरल सा प्रयोग है, जो कि पिछले हज़ारों साल से हमारे पूर्वजों ने
किया है और आज भी यह प्रयोग इतना ही सक्षम है | इसके लिए ‘श्री पंचमी’ को, या किसी
भी शुक्ल पक्ष की पंचमी को, केवल १६ आहुतियाँ 'श्री सूक्त' के प्रत्येक श्लोक के साथ
एक-एक बार देनी होती है | मात्र घृत और कमलगट्टे के एक-एक बीज से कुल १६ आहुतियाँ
देनी है | प्रत्येक महीने इस छोटे से क्रम को करने से जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन आता है, घर में लक्ष्मी के आगमन के साथ-साथ, सुख-समृद्धि और सभी ओर से शुभ समाचार
तो आते ही हैं, साथ ही अग्निहोत्र से उठी शुद्ध वायु वातावरण को भी पवित्र बनाती
है |
जिनके घर में नियमित रूप से यज्ञ होता है उनके परिवार में लोग बहुत कम ही बीमार
पड़ते हैं | इसके पीछे भी वैज्ञानिक आधार ही है | यज्ञ से जो स्वच्छ प्राण वायु घर
के वातावरण में फैलती है, उससे रोग कारक कीटाणु स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं,
मन में प्रसन्नता आती है, शरीर के अन्दर कि प्राण-वायु भी उर्ध्वगामी होती है, जिससे
की रोग, अगर है भी, तो समाप्त होने लगता है !
कई साधक कठिन साधना करने के बावजूद भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते, कई रोज़ मंत्र
जाप करने के बाद भी उन्हें पूर्णता प्राप्त नहीं होती, कारण यह है कि जब तक आत्मा
के इर्द-गिर्द एकत्र पाप समाप्त नहीं हो जाते, तब तक मन दिव्य नहीं हो सकेगा, और
बिना पवित्र मन के प्रभु दर्शन तो कठिन ही नहीं बल्कि असंभव भी है | हम ये तो
जानते हैं की प्रत्येक मंत्र की सिद्धि के लिए किये गए जप का दशांश हवन अनिवार्य
होता है, पर आलस्य वश करते नहीं.. और जब करते नहीं तो सफलता के द्वार पर आते-आते पहले
ही रुक जाते हैं ! इसके बजाए मंत्र जप के साथ ही पूरी विधि से आवश्यक
अग्निहोत्र/हवन भी करें तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी ही होगी |
शरीर को बाहर से पवित्र बनाने के लिए स्नान इत्यादि आवश्यक क्रम है, परन्तु शरीर
को अन्दर से पवित्र करने के लिए आवश्यक है की हम उस प्रकार के वातावरण में रहे जो
आंतरिक दृष्टि से हमें स्वत्छ और दिव्य बनाये | शाश्त्रों के अनुसार यह यज्ञ के
माध्यम से ही संभव है, क्योंकि यज्ञ करते समय विशिष्ट मन्त्रों के उच्चारण और
श्रवन से सुमधुर पवित्र वातावरण की श्रृष्टि होती है, तथा यज्ञ से निकले धूम्र का
प्रवेश जब हमारे शरीर में होता है तो वह अन्दर के भागों को पवित्र और निर्मल बना
देती है |
यज्ञ कैसे करें ?
यज्ञ करने की सामान्य और सरल विधि सदगुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक ‘सर्व सिद्धि
प्रदायक यज्ञ विधान’ से देख के आप कर सकते हैं, सामान्य सरल यज्ञ के लिए तो ज्यादा
जटिलता की जरुरत भी नहीं है केवल कलश स्थापन कर सरल संक्षिप्त विधि से तिल, जौ और
घृत से अथवा केवल घृत से भी आप आहुतियाँ दे सकते हैं | इसके लिए कोई तांबे का छोटा
स हवन कुण्ड लाकर रख सकते हैं बाज़ार से.. या फिर मिटटी के पात्र में ही बालू डालकर
उसमें आहुतियाँ दे सकते हैं | इसके लिए आम/पीपल/ढाक की लकड़ी किसिस भी पूजा की दुकान
से मिल सकता है |
यज्ञ कब करें ?
प्राचीन काल में प्रत्येक गृहस्थ प्रातः काल उठकर स्नान इत्यादि कर अपने कुल देवता
के मंत्र से और अन्य मंत्र से अग्निहोत्र अवश्य करता था | इससे उसके घर में
पवित्रता का वातावरण बना रहता था और कोई अभाव, परेशानियाँ, दुःख इत्यादि व्याप्त
नहीं होता था |
इतिहास साक्षी है, कि जब तक भारत में अग्निहोत्र की परम्परा कायम रही, तब तक
व्यक्ति दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बना रहा, उसकी पारिवारिक समस्याएं कभी नहीं
उभरीं | उसके पूरे परिवार में एक आदर्श भरा माहौल बना रहा, कभी कोई तनाव का
वातावरण नहीं उभरा | परन्तु इसके विपरीत जब से यज्ञों की महत्ता कम हुई तब से
संसार में किस प्रकार के वातावरण की श्रृष्टि हुई है, ये किसी से भी छिपा नहीं है,
आज घर-घर में लड़ाई झगडे, आपस में द्वेष, मनमुटाव... इन सब के मूल में वातावरण का
ही दोष है |
अतः प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए की वो प्रयत्न कर सप्ताह में एक बार तो यज्ञ अवश्य
कर ले, चाहे थोडा स ही समय दे, लेकिन दे अवश्य | अगर यह भी संभव न हो सके, तो
महीने में एक बार, पूर्णिमा या अमावश्य या किसी शुभ तिथि में तो जरुर
यज्ञ/अग्निहोत्र करे |
साधना में उपयोगिता..
अग्निहोत्र की महत्वता तो हम हमारे जीवन में समझ चुके हैं, मगर साधनात्मक जीवन में
भी इसका एक विशेष महत्व है.. किसी भी मंत्र जाप या प्रयोग में उपयोग होने वाली
माला के साथ..| अगर हम अभी भी ये समझ रहे हैं कि हम कहीं से भी कोई मानकों की माला
बाजार से या कहीं दुकान से खरीद कर ले आएंगे और उसपर दो-चार दिन मंत्र जाप कर
लेंगे और हमे सफलता भी प्राप्त हो जाएगी, तो ये हमारी भारी भूल है | अब आज-कल तो खैर, दीक्षा
लेने के लिए या साधना में बैठने के लिए भी ४०००-६००० मूल्य देकर बैठना होता है और
जो माला उन्हें दी जाती है वह गुँथी हुई भी नहीं होती ! इस प्रकार से साधना करने से किसको कितना लाभ हुआ है इसपर अब मैं और कुछ लिखना उचित नहीं समझता हूँ | क्यूंकि अधिकतर साधकों की यही शिकायत रही कि मैंने तो ५० से ऊपर दीक्षाएं
लीं... प्रत्येक चरण की दीक्षा ली.. परन्तु हुआ कुछ भी नहीं.
आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि जप-माला निर्माण की अपनी एक विशिस्थ विधि होती है |
उसके मानकों को कुंवारी कन्या ‘ॐ कार’ की ध्वनि के साथ ढाई गाँठ या तीन गाँठ के
साथ पिरोये | प्रत्येक कार्यों के लिए अलग-अलग धागे से और अलग-अलग रंग से माला
पिरोई जाति है | इसके बाद उस माला को सद्योजात मंत्र से, वामदेव मंत्र से, अघोर
मंत्र से, ईशान मंत्र से पवित्र किया जाता है, फिर इसके बाद हवन से उसे शुद्ध करके
ईष्ट देव की स्थापन की जाती है | मैंने तो यह देखा है कि उन जगहों पर दी जाने वाली
माला गुँथी हुई भी नहीं होती है, तो इसके आगे का क्रम तो क्या ही किया गया होगा !! सदगुरुदेव जब हमें दीक्षा देकर साधना करवाते थे, तो उसकी तो पुरे शरीर के विभिन्न अंगों में देव स्थापन करवाते थे, यन्त्र को विशेष प्रकार से पुजन करवाते थे, तब कहीं जाकर हम मंत्र जाप शुरू करते थे.. इसीलिए मैंने सोचा अब खुद ही माला बनाऊँगा, खुद ही साधना करूँगा | अब भी जो साधक मुझसे
माला प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें यहीं बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के ब्राह्मणों से सिध्ह
करवाके देता हूँ, क्यूंकि भगवान् के साथ पाखंड/buisiness तो नहीं चलता न..
क्या अग्निहोत्र Nuclear Radiation के प्रभाव को रोक पाने में संभव है ??
इस हेतु पढ़ें विस्तार से यह लेख..
http://www.hindudharmaforums.com/showthread.php?t=10039
*********************सदगुरुदेव प्रसंग*************************
*********************दिव्य अग्नि***************************
आप नित्य ‘अग्नि होत्र’ करते समय मन्त्रों से ही स्वतः अग्नि प्रज्ज्वलित करते
हैं, माचिस, रुई या अग्नि का प्रयोग नहीं करते..... यज्ञ कुण्ड में स्वतः अग्नि
प्रज्ज्वलित हो जाती है | यह कौन सी साधना है ?
- पूछा शिष्य अरविन्द ने स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से |
“ॐ वं वह्वि तुभ्यं नमः” मंत्र के ग्यारह लाख जप करने से ‘दिव्यं अग्नि साधना’
संपन्न होती है और यह साधना सिद्ध होने पर यज्ञ कुण्ड के सामने एक बार इस मंत्र का
उच्चारण करते ही स्वतः अग्नि प्रकट हो जाती है |
- समाधान किया गुरु ने अपने शिष्य का |