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Monday, January 13, 2014

सन्यासी का नियंत्रण!



ऐसे होता है मन पे नियंत्रण !

निर्जन गंगा तट..
सन्यासी निखिलेश्वरानंद उन दिनों धीरे-धीरे सारी मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति वीतराग होते जा रहे थे !
कपड़े छोड़ दिए, लंगोट धारण कर ली !
हाथ का कमंडल भी फेंक दिया. घर से तो सम्बन्ध छोड़ ही दिया था. घर वालों को तो पता भी नहीं था निखिल जी कहा हैं !
जूते पहनना छोड़ दिया था, निर्जन हिमालय की उपत्सिका में, गर्मी में भी नंगे पाँव घूमते !
धीरे-धीरे भूख और प्यास की भी आदत डाल रहे थे,
ऐसे ही दिनों में मन पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए, ५ दिनों से कुछ भी खाया नहीं. मधुकरी वृत्ति से भी कुछ नहीं, पर ६ठे रोज भूख असह्य हो उठी.. तब उन्होंने एक ब्राह्मण के घर से भिक्षा में सिर्फ आँटा प्राप्त कर, गंगा के तट पर जाकर कुछ कंडे और लकड़ियाँ एकत्र कर उसे जला दी, और जो आँटा लाये थे, उससे एक ही मोती सी रोटी बनाकर, अंगारों पर सेंकने लगे !

पर ६ दिन से लगी भूख इतनी अधिक थी की मन अधसिकी रोटी खाने की उतावली कर रहा था.
उन्होंने मन को दांटा हड़काया.. पर भूख थी ,
अधसिकी रोटी का ही एक कौर तोड़कर मुंह में डालने लगा,

पर तभी अंतर्मन ने कहा, ऐसी भी क्या इन्द्रियों की गुलामी ?
और कौर निचे रख दिया. तब तक रोटी काफी कुछ सिक गया था, मन खाने की उतावली कर रहा था.

सन्यासी ने फिर मन को हटकारा..... पर भूख तो भूख थी, मन मान ही नहीं रहा था,
हट्ठात् निखिल जी ने सिकी हुई रोटी भी गंगा के नदी में फेंक दी !
बोले मन से – अब क्या करेगा ?? अबतो ३ रोज बाद ही मधुकरी की याचना करना .

और सन्यासी बिना कुछ खाए ही अपने गंतव्य तक पहुँच कर साधनारत हो गया !  

                              - Mantra Tantra Yantra Vigyan magazine, 1986.

1 comment:

  1. Kya baat hai......man ko bahut acchaa laga ye jan ker.....jai guru ji ki.....

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