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Thursday, February 27, 2014

बिल्वपत्र





भगवान शंकर को सर्वाधिक प्रिय बिल्वपत्र है | शिव को बिल्वपत्र अर्पित करने का मंत्र यह है -

 ॐ नमो बिल्मिने च कवचिने च नमो वर्म्मिणे चवरूथिने च नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभयाम चा हनन्याय च नमो धृष्णवे ||

बिल्वपत्र चढाते समय यह प्रर्थना की जानी चाहिए-

काशीवास निवासी च कालभैरव पूजनम् | 
प्रयागे माघमासे च बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

दर्शनम् बिल्वपत्रस्य स्पर्शनम् पापनाशनम् |
अघोर पाप संहारम् बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

त्रिदलं त्रिगुणाकारम् त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम् |
त्रिजन्म पापसंहारम् बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

अखण्डै बिल्वपत्रैश्च पूजये शिवशंकरम् |
कोटि कन्या महादानं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

गृहाण बिलवापत्राणि सपुष्पाणि महेश्वर |
सुगंधीनि भवानीश्च बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

बिल्वपत्र छ: मास तक बासी नहीं माना जाता। लंबे समय शिवलिंग पर एक बिल्वपत्र धोकर पुन: चढ़ाया जा सकता है।


आयुर्वेद के अनुसार बिल्ववृक्ष के सात पत्ते प्रतिदिन खाकर थोड़ा पानी पीने से स्वप्न दोष की बीमारी से छुटकारा मिलता है।


शिवलिंग पर प्रतिदिन बिल्वपत्र चढ़ाने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं |


शास्त्रों में बताया गया है जिन स्थानों पर बिल्ववृक्ष हैं वह स्थान काशी तीर्थ के समान पूजनीय और पवित्र है। ऐसी जगह जाने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।


बिल्वपत्र एक उत्तम औशद्धि है | यह वायुनाशक, कफ-निस्सारक व जठराग्निवर्धक है। ये कृमि व दुर्गन्ध का नाश करते हैं। इनमें निहित उड़नशील तैल व इगेलिन, इगेलेनिन नामक क्षार-तत्त्व आदि औषधीय गुणों से भरपूर हैं। चतुर्मास में उत्पन्न होने वाले रोगों का प्रतिकार करने की क्षमता बिल्वपत्र में है।


ध्यान रखें इन कुछ तिथियों पर बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ये तिथियां हैं चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और सोमवार तथा प्रतिदिन दोपहर के बाद बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ऐसा करने पर पत्तियां तोडऩे वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है।

  
शास्त्रों के अनुसार बिल्व का वृक्ष उत्तर-पश्चिम में हो तो यश बढ़ता है, उत्तर-दक्षिण में हो तो सुख शांति बढ़ती है और बीच में हो तो मधुर जीवन बनता है।


घर में बिल्ववृक्ष लगाने से परिवार के सभी सदस्य कई प्रकार के पापों के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रभाव से सभी सदस्य यशस्वी होते हैं, समाज में मान-सम्मान मिलता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है।

शिवरात्रि पर किए जाने वाले काम्य प्रयोग



शिवरात्रि पर किए जाने वाले काम्य प्रयोग -

|| ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं ||

मंत्र का जप 108 बार करें और बेल फल चढायेँ ... इस रात्रि मे तीन बार करे तो कन्या को मनचाहा वर मिलेगा ही इसमे कोई संशय नही है।


|| ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं ||

का 108 बार तीन बार रात्रि को जप करते हुये अमृता या गिलोय से आहूति को पलाश की समीधा से देते रहे। 
ऐसा करने से लडके को मनचाही पत्नी मिलती ही है।


|| क्लीं ॐ नमः शिवाय क्लीं || 

– 108 
बार जप रात्रि मे तीन बार करने तीन-तीन दूर्वा एक बार मे प्रयोग करते हुये बेल की समीधा से हवन करने पर प्रेम करने वाले को मनचाहा प्रेम मिलता ही है , ना विश्वास हो तो एक बार करके देखिये आपका प्यार पति या पत्नी बनकर जीवन मे आ जायेगा।


विवाह मे देरी होने पर: यह प्रयोग करे -

सामग्री बेल का फलतिलखीरसवा पाव घीसवा पाव दूधसवा पाव दही, 108 दूर्वाचार अंगुल बट की 5 लकडीचार अंगुल पलाश की लकडी 5 पीसचार अंगुल की खेर या कत्था की लकडी 5 पीस।

यह सब रात्रि मे शिव को अर्पित करे।
तीन बार रात्रि मे पुजन करे।
मंत्र इस पुजन मे जो होना चाहिए वो है “ॐ नमो भगवते रुद्राय 

इसका जप 108 बाररात्रि में तीन पहर में करना चाहिए ।

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Pujya Gurudev's Parad Shivling Rudrabhishek
शिव गायत्री मंत्र :

जातक को यदि जन्म पत्रिका में कालसर्प दोषपितृदोष एवं राहु-केतु तथा शनि से पीड़ा है अथवा ग्रहण योग है जो जातक मानसिक रूप से विचलित रहते हैं | जिनको मानसिक शांति नहीं मिल रही होउन्हें भगवान शिव की गायत्री मंत्र से आराधना करनी चाहिए।

क्योंकि कालसर्पपितृदोष के कारण राहु-केतु को पाप-पुण्य संचित करने तथा शनिदेव द्वारा दंड दिलाने की व्यवस्था भगवान शिव के आदेश पर ही होती है। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि इन ग्रहों के कष्टों से पीड़ित व्यक्ति भगवान शिव की आराधना करे तो महादेवजी उस जातक (मनुष्य) की पीड़ा दूर कर सुख पहुँचाते हैं। भगवान शिव की शास्त्रों में कई प्रकार की आराधना वर्णित है परंतु शिव गायत्री मंत्र का पाठ सरल एवं अत्यंत प्रभावशाली है।

मंत्र यह है :- 

|| ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात् ||


इस मंत्र का पवित्र होकर शिवरात्रि को या किसी भी संवार को जपना शुरू करें | इसी के साथ सोमवार का व्रत भी रखें तो श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होंगे।

शिवजी के सामने घी का दीपक लगाएँ। जब भी यह मंत्र करें एकाग्रचित्त होकर करेंपितृदोषएवं कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति को यह मंत्र प्रतिदिन करना चाहिए। सामान्य व्यक्ति भी यदि करे तो भविष्य में कष्ट नहीं व्याप्त होगा । इस जाप से मानसिक शांतियशसमृद्धिकीर्ति प्राप्त होती है। शिव की कृपा का प्रसाद मिलता है।


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|| ॐ अघोरेभ्यो अथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ||


इस अघोर मंत्र का एक लाख बार जाप करने से ब्रह्महत्यारा भी मुक्त हो जाता है ।
पचास हजार जप करने से वाचिक पाप तथा
पच्चीस हजार जप से मानसिक पाप ,
चार लाख जप करने से जानबूझकर किये गये पाप तथा
आठ लाख जप से क्रोधपूर्वक किये गये पाप नष्ट हो जाते है ।
|| ॐ नमः शिवाय ||


                                                                                       - written by Shrii Vijay Madhok Ji





Saturday, February 22, 2014

खूनी नीलम – III, कौन धारण करे ??



Loius Vitton's Jewelry


खूनी नीलम और नीलम धारण करने से पहले इसके ऊपर ज्योतिष विचार कर लेना अत्यंत अनिवार्य है जिससे कि हम पूर्ण संतुष्ट हो सकें जो रत्न हम धारण कर रहे हैं वह हमारे लिए शुभफल ही देगा किसी प्रकार का कोई नुक्सानदायक सिद्ध नहीं होगा | ऐसा देखा गया है कि नीलम यदि किसी व्यक्ति को धारण करने पर जाच गया तो कुछ ही दिनों में सफलता की उचाईयों पर उसे पहुँचा भी देता है, और यदि उसके लिए अनुकूल नहीं है फिर भी वो धारण कर लेता है तो परिणाम अत्यंत घटक भी हो सकता है | इसके साथ ही कई ठग ज्योतिष दुकान खोलकर सस्ते कांच को जमुनिया, नीली इत्यादि बताकर भी बेच देते हैं, उससे न कोई फायदा उस व्यक्ति को होता है, उल्टा ऊँचे दाम में उस अंगूठी को बनवाने में उसे खर्च होता है, वो अलग... क्यूंकि सबसे ज्यादा भ्रम, ठगी, चोर-बाजारी तो इन छोटे-छोटे दुकानों में बैठे ज्योत्षी अपने आपको कहलाने वाले लोग ही फैलाते रहते हैं, सामान्य जन को इस बात का ज्ञान होता नहीं कि असली पत्थर है या नकली, कुण्डली उन्हें देखने अत नहीं, रत्न का मूल्य उन्हें ज्ञात है नहीं, तो उनसे जितना भी जिस भी चीज को बेचकर वसूल करके कर सकते हैं, करते हैं.. ऐसा होता है ! और लोग बड़े शान से, खुश होकर दोस्तों को दिखाते हैं, “देखो ये अंगूठी.. नीलम है... २५ हजार में बनवाई है.. एकदम चुना हुआ
stone लगवाया है.. special…. pure एकदम... पचिस हजार लिया है तो.. लेकिन चीज एकदम गजब है भाई.. पूरा काम किया है !”



नीलम थोडा महंगा रत्न है, इसलिए लें तो पूरी जांच करके लें, उसपर भी सबसे पहले ये जरुर मालूम कर लें कि क्या वह रत्न आपके लिए उपयुक्त है भी ?? या नहीं ! क्यूंकि हर रत्न हर किसी को सूट नहीं कर सकता, नीलम कम ही लोगों को धारता है | इस हेतु आप अपने जन्म-कुण्डली को थोडा स टटोलिये, उर निचे जो नियम दिए जा रहे हैं उससे मिलान कीजिये, अप खुद ही ये ज्ञात कर सकते हैं कि आपके लिए ये अनुकूल है अथवा नहीं | किसी ज्योतिष के पास जाकर, दो घंटा बैठकर दिमाग खपाकर, फिर उसे आप फीस भी देंगे, उसके बाद अगर वो बता भी दे हाँ ये रत्न अप धारण करें तो भी अप संशय में ही रहेंगे, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं होगी.. इसने देखा था तो ठीक से तो देखा था न ?? किसी और से दिखवा लूँ क्या ..


मगर इसकी अपेक्षा आप खुद अध्ययन कर लेंगे तो आपको संतोष रहेगा मन में.. बाद में किसी अनुभवी व्यक्ति की राय लेकर आप इसे धारण कर सकते हैं | यह एक ऐसा रत्न है, जो कुछ घंटों में ही अपना असर दिखा देता है, यदि धारण करने से पहले उसे तकिये के निचे रख के सोयें और अछे स्वप्न आए तो आप जरुर उसे धारण करें, यदि अशुभ स्वप्न आ जाये, या भय लगे, या कोई बुरी खबर आए तो समझ लें की वो आपके लिए अनुकूल नहीं था, अतः विचार त्याग दें |


नीलम की पहचान..



यह एक चिकने सतह वाला पत्थर होता है जिसे धुप में रखने से इसमें से खरी नीली किरणें निकलती सी प्रतीत होती है | इसके अन्दर का पानी साफ़ होता है और ये लगभग पारदर्शी सा होता है | पानी के गिलास में अगर रख दिया जाये तो उसमें से स्वच्छ नीली किरणें निकलती रहती हैं, कांच के टुकड़े में या अन्य उपरत्न में ऐसा नहीं होता |




नीलम कौन धारण करे ??


- जन्म-कुण्डली में जिसके लग्न में मेष, वृष, तुला, वृश्चिक राशि हो वह यदि नीलम धारण करे तो उसके लिए भाग्यवर्धक होता है | लग्न का अर्थ है जन्म-कुण्डली में पहले भाव को लग्न कहते हैं, आपको उसमे लिखा हुआ अंक देखना है, वह १ से लेकर १२ तक हो सकते हैं, १- मेष, २- वरिश, ३- मिथुन.... इस प्रकार से समझना चाहिए |

- शनि की साढ़े साती चल रही हो तो नीलम अवश्य धारण करना चाहिए | नीलम शनि का प्रतिनिधित्व है |

- जन्म कुण्डली में अगर चौथे, पांचवे, दसवें या ग्यारहवें भाव में शनि बैठा हो तो नीलम धारण करना चाहिए | कुण्डली में कुल बारह घर होते हैं, जिसे भाव या स्थान या House कहते हैं |

- छठे भाव के स्वामी के साथ या आठवें घर के स्वामी के साथ यदि शनि बैठा हुआ हो, तो नीलम धारण करना चाहिए |

- शनि मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है | यदि इसमें से एक राशी श्रेष्ठ भाव में हो तथा दूसरा अशुभ भाव में हो तो नीलम न पहनें | पर यदि शनि की दोनों राशियाँ शुभ भाव में स्थित हो तो अवश्य नीलम पहनें !

- शनि सूर्य के साथ बैठा हो, सूर्य की राशी में हो, या सूर्य की दृष्टि उसपर हो तो नीलम धारण करना जरुरी होता है |

- मेष राशी में यदि शनि हो तो नीलम अवश्य धारण करें |


- शनि यदि कमज़ोर हो, वक्री हो या असंगत हो तो नीलम धारण करना जरुरी हो जाता है |



पुरुषों को स्वर्ण में एवं स्त्रियों को रजत में जड़वाकर पहनने से शुभ फल देता पाया गया है | धारण करने के पश्चात ५ साल तक इसका प्रभाव रहता है, उसके बाद इसे उतारकर नया रत्न धारण करना चाहिए |


'खूनी नीलम' क्या है ? इसे कौन धारण कर सकता है ?


खूनी नीलम एक प्रकार के नीलम को कहते हैं, जो कि होता तो नीलम ही है मगर बहुत rare होता है | कम मात्रा में उपलब्ध होने के कारन इसकी कीमत भी लाखों में होती है | किसी-किसी नीलम में नीले रंग के साथ-साथ कुछ अंशात्मक लाल रंग के धब्बे होते हैं | ये धब्बे 'Chromium' के होते हैं | इस प्रकार के नीलम में मंगल और शनि का संयुक्त प्रभाव होता है, इसे उस व्यक्ति को धारण करना चाहिए जिसकी कुण्डली में मंगल और शनि संयुक्त और शनि कि दोनों राशियाँ शुभ भाव में हों | इसके साथ ही एक और तथ्य अनिवार्य होता है कि ऐसा जातक ‘क्षत्रिय’ वर्ण का ही हो, अन्य किसी वर्ण की कुण्डली में इसके प्रभाव को झेलने की क्षमता नहीं होती |


Friday, February 21, 2014

ख़ूनी नीलम – II

Heron-Allen's cursed Amethyst Purple Sapphire


अभी कुछ सालों पहले ही अख़बारों में ख़बर छपी थी एक ऐसे नीलम की, जो कि श्रापित माना गया है, यह नीलम
Purple tint का  है और खूनी नीलम के नाम से जाना जाता है | सन् 1855 ई० में britishers ने इसे भारत के राजघराने से लूटा था और लूटकर वे इसे इंगलैंड ले गये थे | जिस ब्रिटिश अफसर ने इसे लूटा कुछ ही दिनों में दिवालिया हो गया और अचानक ही तबियत बिगड़ जाने से रहस्यमयी ढंग से उसकी मृत्यु हो गयी ! उसकी मृत्यु के बाद जब वो नीलम बेटे के हाथ में आया तो उसकी भी किस्मत डूबने लगी, तो उसने एक मित्र को वह नीलम दे दिया | आश्चर्य की बात तो तब हुई जब उसके मित्र ने आत्म हत्या कर ली और वह नीलम फिर से एक बार उसके पास लौटकर आ गया | लाख कोशिशों के बाद भी वह उससे पीछा नहीं छुड़ा पाया था |



Edward Heron-Allen, नामक एक रेसर्चर के हाथ यह खूनी नीलम तब लगा जब वह इस मामले में Natural History Museum में तहकिकात कर रहा था, 1890 में... पत्थर ने अपना असर दिखाया और एक के बाद एक हादसे उसके साथ होने के बाद उसने उस पत्थर को नाले में फेंक दिया, यह सोचते हुए कि उसे अब कभी भी उस पत्थर को नहीं देखना पड़ेगा ! मगर इस बार भी कुछ अजीब ढंग से वह मनहूस पत्थर एक मछवारे को मिला, जिसने उसे एक सौदागर को बेचा और उस सौदागर ने वापस उसे एडवर्ड के पास ही लाकर छोड़ दिया !   


अब एडवर्ड ने उस पत्थर को बैंक में कुछ तावीजों के साथ और ७ लिफाफों के अन्दर बंद करके जमा करवा दिया था, और स्पष्ट रूप से ये निर्देश दे दिया था कि इसे मेरी मृत्यु के ३ साल बाद ही खोला जाये, उससे पहले नहीं | वह पत्थर वास्तव में नीलम नहीं था, बल्कि वह एक Amethyst/जमुनिया है | मृत्यु के बाद उसकी बेटी ने उसे निकलवाकर Natural History Museum के हवाले कर दिया जो कि आज भी वहीँ मौजूद है, लन्दन में | जो पत्र एडवर्ड ने उसके ऊपर लगाया था उसके शब्द इस प्रकार से थे, “जो कोई भी इसे खोले, वह पहले इस चेतावनी को पढ़े और उसके बाद जो उसके मन में आए इस पत्थर के साथ करे. मेरी सलाह उस आदमी, या औरत के लिए यह है कि वह इसे समुन्दर में फेंक दे !

Thursday, February 20, 2014

खूनी नीलम

Original Khooni Neelam, VVS3 grade.



दिल्ली के एक प्रसिद्ध जोहरी की कहानी मझे ध्यान है, वे करोड़पति थे, किन्तु काल के प्रभाव से धीरे धीरे आर्थिक दृष्टि से वे विपन्न हो गए | चरों भाई लगभग कंगाल बन्ने की स्थिति में चले गए | उनके मकान बिक गए, दूकान लगभग बंद सी हो गयी.. गाड़ियाँ आदि बिक गए | इन्हीं दिनों में उनके बड़े भाई मुझसे मिले, और अपनी दुःख व्यथा उन्होंने मुझे कह सुनाई | मैंने उनके हाथ को देखकर कहा, “यों तो खूनी नीलम धारण करना कोई भी पसंद नहीं करता, परन्तु तुम्हारे लिए वह लाभदायक है, यदि तुम कहीं से प्रयत्न कर खूनी नीलम प्राप्त कर धारण कर लो, तो वापिस तुम उन्नति कर सकते हो |”




उन्होंने प्रयत्न किया, तो एक व्यक्ति ने बताया कि मेरे पास खूनी नीलम है, पर इसके प्रभाव से मैं बर्बाद हो गया हूँ, मैंने तो उसे locker में रख छोड़ा है, मैं तो जाकर हाथ भी उसे लगाऊंगा नहीं, यदि आप चाहें तो मेरे साथ चलकर उसे ले सकते हैं, आप जो भी धनराशी देंगे, मैं स्वीकार कर लूँगा |





 जौहरी को वह सात लाख का खूनी नीलम पचास हज़ार में प्राप्त हो गया, उन्होंने वह नीलम सोने की अंगूठी में जड़वा कर धारण कर लिया | उंसी दिन से उनके भाग्य ने जो पलटा खाया, मात्र छः महिनों में ही वह फर्म वापिस करोड़ों में खेलने लगी, और आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक मजबूत हो गयी | आज भी वे अपनी उन्नति का कारण खूनी नीलम ही मानते हैं, और वे जौहरी हमेशा उसे पहने रहते हैं |


-
Dr. Narayan Dutt Shrimali
    (Year 1975 incident).




Friday, February 14, 2014

sadhana safalta kunji - GURU MANTRA



एक साधक के लिए साधना में सफलता प्राप्त करना 

उसका एक मात्र लक्ष्य होता है, उसके बिना तो 

जीवन जीवन ही नहीं कहा जा सकता | पर क्या 

साधारण रूप से केवल कुछ देर मंत्र जप कर लेने को 

ही साधना कहते हैं ? क्या ईष्ट दर्शन इतना सहज है 
कि नित्य पापों में रत होते हुए भी भगवान के 
दर्शन कर सकते हैं ?
कैसा होना चाहिए एक साधक का जीवन, आईये इतिहास के 
इन महान साधकों से सीखें...



गुरु साधना पक्ष में सबसे आवश्यक कड़ी है, जिनके बिना किसी भी साधना में सफलता नहीं पाई जा सकती | “गुरु बिन ज्ञान न होवे, कोटि जतन कीजै..”, यदि हम करोड़ मंत्र जाप भी करें, तो भी भगवती जगदम्बा के दर्शन कर पाना संभव नहीं है, अगर जीवन में गुरु नहीं हैं तो | परन्तु गुरु भी तो केवल मार्गदर्शन ही कर सकते हैं, प्रयत्न तो साधक को ही करना होता है, अगर शुरुआत में थोड़ी दिक्कतें आती भी हैं तो विश्वास छोड़ देना, या गुरु को दोष देना.. क्या उचित है ? और क्या ऐसे साधारण जीवन जीने को जीना कहते हैं, जो कि केवल जिन्दा रहना और मर जाना है, क्या ऐसा जीवन, जीवन कहलाता है ...? नहीं ! जीवन तो अपने ईष्ट से साक्षात्कार करने के बाद ही पूर्ण कहला सकता है | और यह सब अगर सम्भव है, तो केवल गुरु कृपा से | अपने गुरु के प्रति अटूट विश्वास से.. सेवा से.. और समर्पण से...!



रामकृष्ण परमहंस माँ काली के अनन्य उपासक थे | आठ वर्ष तक इन्होंने नित्य अथक प्रयत्न करके १०१ माला मंत्र माँ के मंदिर में नित्य क्रम से की, परन्तु इन्हें काली के दर्शन नहीं हुए .. रामकृष्ण जिस मंत्र का जप कर रहे थे वह था- “क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा”, तब एक अवधूत ने उन्हें प्रत्यक्ष काली बीज “क्रूं क्रूं क्रूं” लगाकर जप करने को बोला | उन्होंने इसी प्रकार से जप किया, और अगले चौदह दिनों में ही काली उनके सामने प्रकट हो गयीं और उनकी मनोंवांछित इच्छा पूर्ण हुई | बाद में तो रामकृष्ण माँ को स्वयं अपने हाथों से भोग का कौर देते थे और माँ प्यार से ग्रहण भी करतीं थीं, यह उनकी कठोर साधना का ही फल था |



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तारा महाविद्या उन श्रेष्ठ साधनाओं में से एक है जो धन प्राप्ति में, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए और वाक् सिद्धि के लिए अपने आप में अद्वितीय समझी जाती है | महाराष्ट्र के पर्णीपुर निवासी आत्मारामजी माँ तारा के गृहस्थ साधक थे | अपने गुरु के कहने पर पांच लाख मन्त्रों का अनुष्ठान इन्होंने संपन्न किया, परन्तु किसी प्रकार की कोई अनुभूति इन्हें नहीं हुई..

इतना करने के बाद भी जब उन्हें कुछ नहीं मिला, तब अपने गुरु, तारा मंत्र और महाविद्या साधना पर संदेह करते हुए, बहुत ही कठोर भाषा में उन्होंने गुरु को पत्र लिखकर भेज दिया ! 

एक दिन वहाँ चलते-चलते एक उच्च कोटि के योगी पहुंचे | वे योगी वास्तव में ही विद्वान् तो थे ही, तत्त्व ज्ञानी भी थे | जब चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि आत्माराम, माँ तारा की साधना यूँ बीच में ही मत छोड़ दो | गुरु और साधना के प्रति अविश्वास मन में लाना घोर पाप है ! पूर्व जन्म में किये गये पापों के कारण तुम्हें सफलता नहीं मिल पा रही है, जब वे पाप समाप्त हो जायेंगे तब अवश्य तुम्हें सफलता मिल जाएगी | मैं योग बल से देख रहा हूँ, सात लाख मंत्र जप करने पर तुम्हारे पूर्व-जन्म के पाप काटेंगे, इसके बाद सवा लाख और मंत्र जपने से निश्चय ही तुम्हें सफलता मिल जाएगी |

आत्माराम जी ने ऐसा ही किया | सात लाख मंत्र जाप के बाद उन्हें कुछ अनुभूतियाँ होने लगी, उसके बाद जब उन्होंने सवा लाख तारा मंत्र जप किया तो उन्हें माँ तारा के भव्य दर्शन प्राप्त हुए | आज वे भारतवर्ष में माँ तारा के सिद्ध साधक के रूप में विद्यमान हैं |


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मध्य प्रदेश के त्रिभुनेश्वर सिंह को बगला साधना में रूचि थी | बचपन में ही इन्होंने बगला साधना को सिद्ध करने का संकल्प ले लिया था, परन्तु ४२ वर्ष की आयु प्राप्त करने के बावजूद भी वे बगला साधना सिद्ध नहीं कर सके | जब वे एक दिन अत्यधिक खिन्न हो गये, तब उन्होंने क्रोध में बगला चित्र को फाड़कर यन्त्र सहित नदी में प्रवाहित कर दिया | फिर एक दिन संयोग से दतिया के योगी पूर्णानन्द उन्हें मिले, उन्होंने कहा- मेरे कहने पर पाँच लाख गुरु मंत्र संपन्न कर गुरु से आशीर्वाद प्राप्त करें, और फिर चौदह दिन तक निराहार रह कर इसी मंत्र से बगला साधना संपन्न करें | इन चौदह दिनों में किसी भी स्त्री का मुँह न देखें, तभी सिद्धि मिलेगी | 



त्रिभुनेश्वर सिंह ने इसी प्रकार से साधना संपन्न की.. और जो साधना ४२ सालों में भी वो सिद्ध न कर सके, वह पहली ही बार में उनको सिद्ध हो गयी ! ये गुरु मंत्र के पाँच लाख के जप का ही परिणाम तो था..| आज वे अमरकंटक में बगला के अधिकारी विद्वान् के रूप में जाने जाते हैं |



साधक को कभी भी प्राथमिक असफलताओं से विचलित नहीं हो जाना चाहिए | रास्ते में बाधाएं तो आती ही हैं, परन्तु हिम्मत हार कर बैठ जाने वाले व्यक्ति को कभी भी सफलता नहीं मिलती | जो गुरु के प्रति पूर्ण लीन होके सतत प्रयासरत रहता है, वही साधना के क्षेत्र में अपना नाम अमर करता है |



******************GURU QUOTES********************

जीवन में तुम्हें एक क्षण भी रुकना नहीं है, निरंतर आगे बहना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है |


***


मैंने योगी जीवन भी जिया है, संन्यास जीवन भी जिया है .. और बहुत कट्टरता के साथ जिया है ! दृढ़ता के साथ जिया है. और जो सन्यासी दो सेकंड भी देर करता, आलस्य करता, तो उसे एक लात मारता था तो बीस फुट दूर जाकर के गिरता था...., और दो-चार हड्डियाँ तो चरमरा जाति थीं... गॉरंटी के साथ में.. इतनी हिम्मत इतनी क्षमता उस शिष्य में होनी चाहिये .. मैं बरदाश्त नहीं कर सकता था कि २ सेकंड भी देर वो करे, पर आपको मैं कुछ कह भी नहीं सकता क्योंकि आप गृहस्थ हैं... और..... घोर गृहस्थ हैं !



***

दीक्षा का अर्थ, मैंने आपसे कहा कि बस.. एक क्षण... आँख से आँख लगी.. कि दीक्षा हुई | एक क्षण ही बहुत होता है ! सिर्फ चार  फेरे ही बहुत होते हैं, कोई लम्बा-चौड़ा चक्कर नहीं.. ये फालतू बाराती-वराती से तो कोई मतलब ही नहीं है, ये तो ठीक है, कि बस होना चाहिए ... मगर मूल अर्थ तो ये है कि लड़का-लड़की अग्नि के चार फेरे खाए, पंडित ने मन्त्रों को पढ़ा.. और बस घर की सारी चाभी उसके हाँथों में दे दी कि ले ! ध्यान रख... एक अनजान लड़की ! जिसको आप जानते तक नहीं उसको अपने घर की चाभी दे दी, करोड़ों की संपत्ति उसके हाँथ में दे दी, इसलिए कि आपने उसके साथ चार फेरे खाए | और केवल पांच मिनट में वो चार फेरे खा लिए |
- Pujya Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali.


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Wednesday, February 12, 2014

Guru Pushyamrit Mahatwa



क्या ऐसा कोई योग है जिसमें  किसी भी साधना में निश्चित सफलता मिलती ही है ?
क्या ऐसा कोई दिन है जब व्यापार/शुभ कार्यादी करें तो उसमें हर हाल में उन्नति होती है ??
क्या ऐसा भी कोई अवसर है, जो अक्षय तृतीय एवं धनतेरस के बराबर महत्व रखता है ?

कल, 13 February, 2014, गुरु पुष्य नक्षत्र है, इस अवसर पर पाठकों के लिए प्रस्तुत है गुरु-पुष्य नक्षत्र कि महत्वता को दर्शाता ये महत्वपूर्ण लेख -


‘पाणिनी संहिता’ में “पुष्य सिद्धौ नक्षत्रे” के बारे में यह लिखा है-

सिध्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि सिध्यः |
पुष्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि इति पुष्य ||

अर्थात पुष्य नक्षत्र में शुरू किये गए सभी कार्य सिद्ध होते ही हैं.. फलीभूत होते ही हैं |
पुष्य शब्द का अर्थ ही है कि जो अपने आप में परिपूर्ण है.. सबल है.. पूर्ण सक्षम और पुष्टिकारक है..| हिंदी शब्दकोष में ‘पुष्टी’ शब्द का निर्माण संस्कृत के इसी पुष्य शब्द से हुआ | २७ नक्षत्रों में से एक ‘पुष्य नक्षत्र’ है, और इस दिन जब गुरुवार भी हो तो उसे गुरु पुष्य नक्षत्र या ‘गुरु पुष्यामृत योग’ कहते हैं | इस दिन कोई भी साधना अवश्य शुरू करें, और आँख मूँद कर उसकी सिद्धि का यकीन करें और पूर्ण तन्मयता के साथ सहना संपन्न करें | गरूर साधना और गुरु पूजन तो प्रत्येक शिष्य को इस दिन करना अनिवार्य ही है |

पूज्य गुरुदेव ने गुरु पुष्य की विशेषता स्पष्ट करते हुए कहा है, कि सभी योग विरुद्ध हों, तो भी पुष्य नक्षत्र में किया गया कार्य सिद्ध हो जाता है | पुष्य नक्षत्र अन्य सभी योगों के दोषों को दूर कर देता है, और पुष्य के गुण किसी भी दुर्योग द्वारा नष्ट नहीं हो सकते !


गुरु पुष्य में कौन सी साधना संपन्न करें ?

सामान्य लोग इस दिन स्वर्ण खरीदते हैं, यदि धनतेरस के दिन स्वर्ण/रजत नहीं खरीद पाए तो इस दिन खरीद सकते हैं, इससे भी निरंतर श्री वृद्धि होती रहती है | इसके साथ ही कोई नई वस्तु, नया कारोबार, वाहन गृह प्रवेश आदि कर सकते हैं, इस दिन जो भी खरीदते हैं वह स्थायी संपत्ति सिद्ध होती है |

साधकों को इस दिन लक्ष्मी या श्री से सम्बंधित साधना करनी चाहिए | साथ ही किसी भी प्रकार की साधना चाहे सौन्दर्य से सम्बंधित हो, कार्य सिद्धि हो, विद्या प्राप्ति के लिए हो, कर सकते हैं | 
इस दिन आप किसी भी यन्त्र का लेखन करके उसको प्राण-प्रतिष्ठित कर सकते हैं | इस दिन आप किसी भी रत्न को सिद्ध कर सकते हैं | 

शिष्यों को इस दिन गुरु पूजन और गुरु मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए |

गुरु पुष्य में क्या ‘नहीं’ करना चाहिए ?

सभी शुभ कार्यों को इस दिन संपन्न किया जा सकता है, केवल एक को छोड़कर..... ‘विवाह संस्कार’..
शाश्त्रों में उल्लेखित है कि एक श्राप के अनुसार इस दिन किया हुआ विवाह कभी भी सुखकारक नहीं हो सकता | माता सीता का प्रभु राम से विवाह इसी योग में हुआ था |


आखिर इस योग के सिद्धिदायक होने के पीछे रहस्य क्या है ??

इसका कारण यह है कि इस विशेष योग में जो नक्षत्र आकाश मंडल में मौजूद होता है, पुष्य नक्षत्र, इसके स्वामी ग्रह शनि हैं | शनि ग्रह स्थायित्व प्रदान करने वाले हैं.. इनकी चाल अत्यंत धीमी होती है, जो भी Astronomical Science के student हैं वे इस बात को भली प्रकार से जानते ही होंगे | और इस दिन गुरुवार हो, तो, गुरु जो स्वर्ण, धन, ज्ञान के प्रतीक हैं, और सर्व सिद्धिदायक हैं, जो सभी ग्रहों में सर्वाधिक शुभ फल दी वाले हैं, इनके प्रभाव से प्रत्येक कार्य सिद्ध भी होता है.. और शनि के कारण स्थायी भी होता है |
शनि एकांत प्रदान करते हैं, जो कि साधना के लिए आवश्यक अंग है | 

AGNIHOTRA.... सभी मनोरथों को सिद्ध करने में सक्षम..



लक्ष्मी प्राप्ति के लिए एक सरल सा प्रयोग है, जो कि पिछले हज़ारों साल से हमारे पूर्वजों ने किया है और आज भी यह प्रयोग इतना ही सक्षम है | इसके लिए ‘श्री पंचमी’ को, या किसी भी शुक्ल पक्ष की पंचमी को, केवल १६ आहुतियाँ 'श्री सूक्त' के प्रत्येक श्लोक के साथ एक-एक बार देनी होती है | मात्र घृत और कमलगट्टे के एक-एक बीज से कुल १६ आहुतियाँ देनी है | प्रत्येक महीने इस छोटे से क्रम को करने से जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन आता है, घर में लक्ष्मी के आगमन के साथ-साथ, सुख-समृद्धि और सभी ओर से शुभ समाचार तो आते ही हैं, साथ ही अग्निहोत्र से उठी शुद्ध वायु वातावरण को भी पवित्र बनाती है |


जिनके घर में नियमित रूप से यज्ञ होता है उनके परिवार में लोग बहुत कम ही बीमार पड़ते हैं | इसके पीछे भी वैज्ञानिक आधार ही है | यज्ञ से जो स्वच्छ प्राण वायु घर के वातावरण में फैलती है, उससे रोग कारक कीटाणु स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं, मन में प्रसन्नता आती है, शरीर के अन्दर कि प्राण-वायु भी उर्ध्वगामी होती है, जिससे की रोग, अगर है भी, तो समाप्त होने लगता है !



कई साधक कठिन साधना करने के बावजूद भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते, कई रोज़ मंत्र जाप करने के बाद भी उन्हें पूर्णता प्राप्त नहीं होती, कारण यह है कि जब तक आत्मा के इर्द-गिर्द एकत्र पाप समाप्त नहीं हो जाते, तब तक मन दिव्य नहीं हो सकेगा, और बिना पवित्र मन के प्रभु दर्शन तो कठिन ही नहीं बल्कि असंभव भी है | हम ये तो जानते हैं की प्रत्येक मंत्र की सिद्धि के लिए किये गए जप का दशांश हवन अनिवार्य होता है, पर आलस्य वश करते नहीं.. और जब करते नहीं तो सफलता के द्वार पर आते-आते पहले ही रुक जाते हैं ! इसके बजाए मंत्र जप के साथ ही पूरी विधि से आवश्यक अग्निहोत्र/हवन भी करें तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी ही होगी |



शरीर को बाहर से पवित्र बनाने के लिए स्नान इत्यादि आवश्यक क्रम है, परन्तु शरीर को अन्दर से पवित्र करने के लिए आवश्यक है की हम उस प्रकार के वातावरण में रहे जो आंतरिक दृष्टि से हमें स्वत्छ और दिव्य बनाये | शाश्त्रों के अनुसार यह यज्ञ के माध्यम से ही संभव है, क्योंकि यज्ञ करते समय विशिष्ट मन्त्रों के उच्चारण और श्रवन से सुमधुर पवित्र वातावरण की श्रृष्टि होती है, तथा यज्ञ से निकले धूम्र का प्रवेश जब हमारे शरीर में होता है तो वह अन्दर के भागों को पवित्र और निर्मल बना देती है |



यज्ञ कैसे करें ?


यज्ञ करने की सामान्य और सरल विधि सदगुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक ‘सर्व सिद्धि प्रदायक यज्ञ विधान’ से देख के आप कर सकते हैं, सामान्य सरल यज्ञ के लिए तो ज्यादा जटिलता की जरुरत भी नहीं है केवल कलश स्थापन कर सरल संक्षिप्त विधि से तिल, जौ और घृत से अथवा केवल घृत से भी आप आहुतियाँ दे सकते हैं | इसके लिए कोई तांबे का छोटा स हवन कुण्ड लाकर रख सकते हैं बाज़ार से.. या फिर मिटटी के पात्र में ही बालू डालकर उसमें आहुतियाँ दे सकते हैं | इसके लिए आम/पीपल/ढाक की लकड़ी किसिस भी पूजा की दुकान से मिल सकता है |



यज्ञ कब करें ?

प्राचीन काल में प्रत्येक गृहस्थ प्रातः काल उठकर स्नान इत्यादि कर अपने कुल देवता के मंत्र से और अन्य मंत्र से अग्निहोत्र अवश्य करता था | इससे उसके घर में पवित्रता का वातावरण बना रहता था और कोई अभाव, परेशानियाँ, दुःख इत्यादि व्याप्त नहीं होता था | 



इतिहास साक्षी है, कि जब तक भारत में अग्निहोत्र की परम्परा कायम रही, तब तक व्यक्ति दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बना रहा, उसकी पारिवारिक समस्याएं कभी नहीं उभरीं | उसके पूरे परिवार में एक आदर्श भरा माहौल बना रहा, कभी कोई तनाव का वातावरण नहीं उभरा | परन्तु इसके विपरीत जब से यज्ञों की महत्ता कम हुई तब से संसार में किस प्रकार के वातावरण की श्रृष्टि हुई है, ये किसी से भी छिपा नहीं है, आज घर-घर में लड़ाई झगडे, आपस में द्वेष, मनमुटाव... इन सब के मूल में वातावरण का ही दोष है |



अतः प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए की वो प्रयत्न कर सप्ताह में एक बार तो यज्ञ अवश्य कर ले, चाहे थोडा स ही समय दे, लेकिन दे अवश्य | अगर यह भी संभव न हो सके, तो महीने में एक बार, पूर्णिमा या अमावश्य या किसी शुभ तिथि में तो जरुर यज्ञ/अग्निहोत्र करे | 



साधना में उपयोगिता..


अग्निहोत्र की महत्वता तो हम हमारे जीवन में समझ चुके हैं, मगर साधनात्मक जीवन में भी इसका एक विशेष महत्व है.. किसी भी मंत्र जाप या प्रयोग में उपयोग होने वाली माला के साथ..| अगर हम अभी भी ये समझ रहे हैं कि हम कहीं से भी कोई मानकों की माला बाजार से या कहीं दुकान से खरीद कर ले आएंगे और उसपर दो-चार दिन मंत्र जाप कर लेंगे और हमे सफलता भी प्राप्त हो जाएगी, तो ये हमारी भारी भूल है | अब आज-कल तो खैर, दीक्षा लेने के लिए या साधना में बैठने के लिए भी ४०००-६००० मूल्य देकर बैठना होता है और जो माला उन्हें दी जाती है वह गुँथी हुई भी नहीं होती ! इस प्रकार से साधना करने से किसको कितना लाभ हुआ है इसपर अब मैं और कुछ लिखना उचित नहीं समझता हूँ | क्यूंकि अधिकतर साधकों की यही शिकायत रही कि मैंने तो ५० से ऊपर दीक्षाएं लीं... प्रत्येक चरण की दीक्षा ली.. परन्तु हुआ कुछ भी नहीं. 



आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि जप-माला निर्माण की अपनी एक विशिस्थ विधि होती है | उसके मानकों को कुंवारी कन्या ‘ॐ कार’ की ध्वनि के साथ ढाई गाँठ या तीन गाँठ के साथ पिरोये | प्रत्येक कार्यों के लिए अलग-अलग धागे से और अलग-अलग रंग से माला पिरोई जाति है | इसके बाद उस माला को सद्योजात मंत्र से, वामदेव मंत्र से, अघोर मंत्र से, ईशान मंत्र से पवित्र किया जाता है, फिर इसके बाद हवन से उसे शुद्ध करके ईष्ट देव की स्थापन की जाती है | मैंने तो यह देखा है कि उन जगहों पर दी जाने वाली माला गुँथी हुई भी नहीं होती है, तो इसके आगे का क्रम तो क्या ही किया गया होगा !! सदगुरुदेव जब हमें दीक्षा देकर साधना करवाते थे, तो उसकी तो पुरे शरीर के विभिन्न अंगों में देव स्थापन करवाते थे, यन्त्र को विशेष प्रकार से पुजन करवाते थे, तब कहीं जाकर हम मंत्र जाप शुरू करते थे.. इसीलिए मैंने सोचा अब खुद ही माला बनाऊँगा, खुद ही साधना करूँगा | अब भी जो साधक मुझसे माला प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें यहीं बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के ब्राह्मणों से सिध्ह करवाके देता हूँ, क्यूंकि भगवान् के साथ पाखंड/buisiness तो नहीं चलता न..



क्या अग्निहोत्र Nuclear Radiation के प्रभाव को रोक पाने में संभव है ??



इस हेतु पढ़ें विस्तार से यह लेख..

http://www.hindudharmaforums.com/showthread.php?t=10039






*********************सदगुरुदेव प्रसंग*************************

*********************दिव्य अग्नि***************************

आप नित्य ‘अग्नि होत्र’ करते समय मन्त्रों से ही स्वतः अग्नि प्रज्ज्वलित करते हैं, माचिस, रुई या अग्नि का प्रयोग नहीं करते..... यज्ञ कुण्ड में स्वतः अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है | यह कौन सी साधना है ?

- पूछा शिष्य अरविन्द ने स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से |



“ॐ वं वह्वि तुभ्यं नमः” मंत्र के ग्यारह लाख जप करने से ‘दिव्यं अग्नि साधना’ संपन्न होती है और यह साधना सिद्ध होने पर यज्ञ कुण्ड के सामने एक बार इस मंत्र का उच्चारण करते ही स्वतः अग्नि प्रकट हो जाती है |

- समाधान किया गुरु ने अपने शिष्य का |


Tuesday, February 4, 2014

"अब तुम ही तो हो..."





***************वह पत्र जो सदगुरुदेव ने बहुत पहले ही लिख दिया था**************



गुरु पूर्णिमा, वि॰ संवत् 2056,



     मेरे परम आत्मीय पुत्रों,



             तुम क्यों निराश हो जाते हो, मुझे ना पाकर अपने बीच ? मगर मैं तो तुम्हारे बिलकुल बीच ही हूँ, क्या तुमने अपने ह्रदय की आवाज़ को ध्यान से कान लगाकर नहीं सुना है ?शायद नहीं भी सुन पा  रहे होगे..... और मुझे मालूम था, कि एक दिन यह स्थिति आएगी, इसीलिए ये पत्र मैंने पहले ही लिखकर रख दिया था, कि अगली गुरु पूर्णिमा में शिष्यों के लिए पत्रिका में दिया जा सके... परन्तु मैं तुमसे दूर हुआ ही कहाँ हूँ ! तुमको लगता है, कि मैं चला गया हूँ, परन्तु एक बार फिर अपने ह्रदय को टहोक कर देखो, पूछ कर देखो तो सही एक बार कि क्या वास्तव में गुरुदेव चले गये हैं ? ऐसा हो ही नहीं सकता, कि तुम्हारा ह्रदय इस बात को मान ले, क्यूंकि उस ह्रदय में मैंने प्राण भरे हैं, मैंने उसे सींचा है खुद अपने रक्त कणों से ! तो फिर उसमें से ऐसी आवाज़ भला आ भी कैसे सकेगी ?



             जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा है ही नहीं, और जब तुम तुम हो ही नहीं, तो फिर तुम्हारा जो ये शरीर है, जो ह्रदय है, तुम्हारी आँखों में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और कौन है ? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी-कभी समझ भी लेते हो, परन्तु दूसरे व्यक्ति अवश्य ही इस बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, की कुछ न कुछ विशेष तुम्हारे अन्दर है तो जरूर.. और वो विशेष मैं ही तो हूँ, जो तुममें हूँ !



             ......और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं, इसीलिए तो अपने खून से सींचा है तुम्हें, सींचकर अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया है तुम सबको, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी है ! मेरे कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते हैं, अन्य किसमें वह पात्रता है, अन्य किसी में वह सामर्थ्य हो भी नहीं सकता, क्यूंकि वह योग्यता मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं है ?



            उस नित्य लीला विहारिणी को एक कार्य मुझसे कराना था, इसलिए देह का अवलम्बन लेकर मैं उपस्थित हुआ तुम्हारे मध्य !...... और वह कारण था - तुम्हारा निर्माण ! तुमको गढ़ना था और जब मुझे विश्वास हो गया कि अपने मानस पुत्रों को ऊर्जा प्रदान कर दी है, चेतना प्रदान कर दी है ! तुम्हें तैयार कर दिया है, तो मेरे कार्य का वह भाग समाप्त हो गया, परन्तु अभी तो मेरे अवशिष्ट कार्यों को पूर्णता नहीं मिल पायी है, वे सब मैंने तुम्हारे मजबूत कन्धों पर छोड़ दिया है ! ये कौन से कार्य तुम्हें अभी करने हैं, किस प्रकार से करने हैं, इसके संकेत तुम्हें मिलते रहेंगे ! 


            तुम्हें तो प्रचण्ड दावानल बनकर समाज में व्याप्त अविश्वास, अज्ञानता, कुतर्क, पाखण्ड, ढोंग और मिथ्या अहंकार के खांडव वन को जलाकर राख कर देना है ! और उन्हीं में से कुछ ज्ञान के पिपासु भी होंगे, सज्जन भी होंगे, हो सकता है वो कष्टों से ग्रस्त हों, परन्तु उनमें ह्रदय हो और वो ह्रदय की भाषा को समझते हों, तो ऐसे लोगों पर प्रेम बनकर भी तुम बरस जाना ! और गुरुदेव का सन्देश देकर उनको भी प्रेम का एक मेघ बना देना ! 

             फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे पनपेंगे, उस हरियाली से भारतवर्ष झूम उठेगा ! फिर हिमालय का एक छोटा स भू-भाग ही नहीं पूरा भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत ही क्यूं, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा ! 

             कौन कहता है, ये सब संभव नहीं है ? एक अकेला मेघ खण्ड नहीं कर सकता ये सब, पूरी धरती को एक अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन फुहारों से ..... परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचण्ड धूप में धरती झुलस रही होगी, वहां पर एकदम से मौसम बदल जायेगा ! 

            “अलफांसो” अव्वल दर्जे के आम होते हैं, उन्हें भारत में नहीं रखा जाता, उन्हें तो विदेश में भेज दिया जाता है, नियात कर दिया जाता है, और भारत विदेशों में इन्हीं आमों से भारत की छवि बनती है ! 
तुम भी अव्वल दर्जे के मेरे शिष्य हो, तुम्हें भी फैल जाना है, मेरे  प्रतीनिधी बनकर और सुगंध को बिखेर देना है, सुवासित कर देना है पुरे विश्व को, उस गंध से, जिसको तुमने एहसास किया है !

             गुरु नानक एक गाँव में गए, उस गाँव के लोगों ने उनका खूब सत्कार किया ! जब वे गाँव से प्रस्थान करने लगे, तो गाँव के सब लोग उनको विदाई देने के लिए एकात्र हुए ! वे सब गुरूजी के आगे हाँथ जोड़कर और शीश झुकाकर खाए हो गए ! नानक ने कहा – “आप सब बड़े नेक और उपकारी हैं, इसीलिए आपका गाँव और आप सब उजड़ जायें !”

             इस प्रकार आशीर्वा देकर आगे चल दिए और एक दूसरे गाँव पहुंचे ! दूसरे गाँव के लोगों ने गुरु नानक के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया ! नानक जी ने वहाँ से प्रस्थान करते समय वहाँ के लोगों को आशीर्वाद देते हुए कहा – “तुम्हारा गाँव और तुम सदा बसे रहो !”

            मरदाना जो उनका सेवक था, उसने नानक से पूछा – “आपने अछे लोगों को बुरा, और बुरे लोगों को अच्छा आशीर्वाद दिया, ऐसा क्यों ?”

            नानक मुस्कुराए और बोले – “तुम इस बात को नहीं समझे, तो सुनो ! जो लोग बुरे हैं, उन्हें एक ही स्थान पर बने रहना चाहिए, जिससे वे अपनी बुराई से दूसरों को हानि नहीं पहुँचा सकें ! परन्तु जो लोग अछे हैं उन्हें एक जगह नहीं रहना चाहिए ! उन्हें सब जगह फैल जाना चाहिए जिससे उनके गुण और आदर्श दूसरे लोग भी सीखकर अपना सकें !

            इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक जगह ठहरकर नहीं रहना है, तुम्हें तो गतिशील रहना है, खलखल करती नदी की तरेह, जिससे तुम्हारे जल से कई और भी कई प्यास बुह सकें, क्यूंकि वह जल तुम्हारा नहीं है, वह तो मेरा दिया हुआ है ! इसलिए तुम्हें फैल जाना है पूरे भारत में, पूरे विश्व में......

            ..... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर, हाँथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर.... और घर वापिस तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र के हाथों पर अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो, कि वह तुम्हारे सद्गुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का अवश्य सम्मान करेगा !

            ...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सद्गुरुदेव की कृपा बरसती है ! तुम उसमें इतने अधिक भींग जाओगे, कि तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी !

           एक बार बगावत करके तो देखो, एक बार अपने अन्दर तूफ़ान लाकर तो देखो ! देखो तो सही एक बार गुरुदेव का हाँथ बनकर ! फिर तुम्हें खुद कुछ करना भी नहीं पड़ेगा ! सबकुछ स्वतः ही होता चला जायेगा, पर पहला कदम तो तुम्हें उठाना ही होगा, एक बार प्रयास तो करना ही होगा ! निकल के देखो तो सही घर के बंद दरवाज़ों से बाहर समाज में और फैल जाओ बुद्ध के श्रमणों की तरेह पूरे भारतवर्ष में और पूरे विश्व में भी !

           फिर देखना कैसे नहीं गुरुदेव का वरद्हस्त तुम्हें अपने सिर पर अनुभव होता है और छोटी समस्याओं से घबराना नहीं, डरना नहीं ! समुद्र में अभी इतना जल नहीं है की वह निखिलेश्वरानंद के शिष्यों को डुबो सके ! क्योंकि तुम्हारे पीछे हमेशा से ही मैं खड़ा हूँ और खड़ा रहूँगा भी !   

           तुम मुझसे न कभी अलग थे और ना ही हो सकते हो ! दीपक की लौ से प्रकाश को अलग नहीं किया जा सकता और ना ही किया जा सकता है पृथक सूर्य की किरणों को सूर्य से ही ! तुम तो मेरी किरणें हो, मेरा प्रकाश हो, मेरा सृजन हो, मेरी कृति हो, मेरी कल्पना हो, तुमसे भला मैं कैसे अलग हो सकता हूँ !

           ‘तुम भी तो....’ (जुलाई-98 के अंक में) मैंने तुम्हें पत्र दिया था यही तो उसका शीर्षक था, लेकिन अब ‘तुम भी तो’ नहीं, वरण ‘तुम ही तो’ मेरे हाँथ-पाँव हो, और फिर कौन कहता है, कि मैं शरीर रूप में उपस्थित नहीं हूँ ! मैं तो अब पहले से भी अधिक उपस्थित हूँ ! और अभी इसका एहसास शायद नहीं भी हो, की मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध है, क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह एहसास होने भी तो नहीं दिया है !

            पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे, शीग्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही आयेगा !

           मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा है, कभी भी निखिलेश्वरानंद कि कठोर कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा नहीं ली है, हर बार नारायणदत्त श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य ! और परीक्षा नहीं ली, तो इसलिए कि तुम इस प्यार को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परीवार को जो तुम्हारे ही गुरु भाई-बहनों का है, तुम्हें इसी परिवार में प्रेम से रहना है !

           समय आने पर यह तो मेरा कार्य है, मैं तुम्हें गढ़ता चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं, उन्हें मैं किसी भी पल भूला नहीं हूँ, तुम उन सब वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार होते हुए देखते रहोगे ! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के अलावा और किसी सिद्धि की  चाह बचेगी ही नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चुका होगा, क्यूंकि ‘तुम ही तो मेरे हो..’




     सदा की ही भांति स्नेहासिक्त आशीर्वाद.


     - तुम्हारा गुरुदेव.

       नारायणदत्त श्रीमाली.



(published in July, 1999 magazine edition).


********************************सूचना*************************************

१). साधकों के अत्यधिक उत्साह और साधना सीखने की चाह को देखते हुए मैंने और हमारे अन्य गुरु भाई-बहनों ने ये निर्णय लिया है कि हम कुछ विशेष शिष्यों के अनुभवों को आपके सामने रखेंगे, इसके साथ ही जिस किसी को कोई विशेष साधना पद्धति सीखने और करने की इच्छा हो उन्हें भी व्यक्तिगत रूप से निर्देशित करेंगे !

२). कुछ गोपनीय साधनायें सबके सामने व्यक्त नहीं किये जा सकते, इसलिए जिन्हें सीखने की चाह हो ही वे आगे बढें और अपने किसी भी अनुभव लिखकर भेज सकते हैं, ताकि उन्हें आगे की ओर अग्रसर किया जा सके | यह 'अनुभव लेख' एक दिन के मंत्र जप से लेकर के महाविद्या साधना तक के अनुभव की हो सकती है |

३). केवल उन्हीं भाइयों को इस प्रकार की सुविधा उपलब्ध होगी जो अपने साधनात्मक जीवन का कुछ अंशात्मक क्षण व्यक्त करेंगे | उनके लेख को नाम सहित प्रस्तुत किया जायेगा | अन्य साधक भी कृपया पत्रिका पढ़कर आगे बढ़ने का प्रयत्न करते रहे | 

४). जिन भाइयों को विशेष प्रकार की माला तैयार करके भिजवाने का वादा मैंने किया था, सम्बंधित साधनाओं के लिए वह कार्य लगभग अब पूर्ण हो चुका है और अब कुछ ही दिनों में वो आपके पास भेजवा दी जाएँगी | माला की उपयोगिता और विवरण अगले लेख में प्रस्तुत होगा....

५). वरिष्ठ भाइयों से निवेदन है कि वे सदगुरुदेव से सम्बंधित और भी छुपी हुई बातें हमे बताएं और वो यहाँ पर छपे और सभी गुरु भाई-बहिन उसे पढ़कर उन आदर्शों पर चल सकें !

Jai Sadgurudev !



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