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Saturday, May 31, 2014

PAARAD KE SIDDH ACHARYA, 20th CENTURY KE




पारद संस्कार के बारे में मेरी एक वरिष्ठ गुरु भाई से चर्चा हो रही थी, वे सन
1993 से सदगुरुदेव के निर्देश में पारद संस्कार करते आ रहे है, उन्होंने अति-कृपा करके मुझे कई ऐसे ज्ञानवर्धक एवं अति-दुर्लभ रहस्यमयी बातें बतायीं इस विषय में | पारद पे मेरे लेख उन्हीं कि INSPIRATION से है |


बीसवीं शताब्दी के कुछ रस सिद्ध आचार्यों के नाम इस प्रकार से हैं -

१. श्याम गिरी सन्यासी |
२. बी० एस० प्रेमी |
३. त्रिलोक नाथ आज़मी – पारद के
18 संस्कार के पूर्ण ज्ञाता |
४. ए० पी० आचार्य |
५. कृष्ण राम भट्ट (जयपुर वाले) |
६. रखाल दास घोश (पश्चिम बंगाल से) |
७. सुधीर रंजन भडोदी |
८. बदी नारायण शास्त्रीजी (कालेड़ा वाले) – जिन्होंने रस तंत्र विवेचन एवं रस शास्त्र प्रवेचिता जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे, जो कि अनुभव के आधार पे हैं, एवं रस कर्मियों के पठन योग्य दुर्लभ ज्ञान से ओत प्रोत पुस्तकें हैं |
९. पुष्कर वनखंडी बाबा – जो कि पारद के अन्यतम आचार्यों में से एक गिने जाते हैं |


इन सभी रस ज्ञाताओं ने पारद को बुभुक्षित करने के महत्वा को एक स्वर से स्वीकार किया है, पारद को बुभुक्षित करने कि क्रिया और उससे पारद को अनंत शक्ति संपन्न बनाने कि महत्वता को बताया है | और ये सभी रस सिद्ध जन
20 वीं शताब्दी के ही हैं, यह नहीं कि कोई अति-प्राचीन या लुप्त प्राय बात यहाँ हो रही हो मगर दुविधा ये है हमारे सामने कि इनमें से कोई भी रस सिद्ध वर्तमान में नहीं हैं | उनके अनुसार कार्य करने वाले तो जरूर हैं, हमारे पास उनके लिखे गये ग्रन्थ तो जरूर हैं, मगर उनका इस दुनिया में न होने से इस विषय का क्रियात्मक ज्ञान PRACTICAL KNOWLEDGE हमारे पास नहीं है ! मगर यह भी सही है कि अगर सही से मार्गदर्शन देने वाला मिल जाये तो कुछ भी अप्राप्य नहीं | इनके ही अनुयायी या इनसे सीखकर करने वाले भी बहुत से लोग आज हैं, वे अब सामने आयें यही इस विद्या को जीवित रखने के लिए अत्यंत आवश्यक और अनिवार्य क्रम होगा, ऐसा अति दुर्लभ एवं दिव्य ज्ञान , दुर्लभ से कहीं अब लुप्त ही न हो जाये |


श्री कृष्ण पाल शास्त्री जी भुवनेश्वरी शक्ति पीठ गौन्डल में रहकर आचार्य चरण तीर्थ जी महाराज से पारद विद्या सीखकर
18 संस्कार में निष्णात हुए थे | और उस काल में करीब-करीब वे सारे आचार्य आपस में मिलते भी थे और इस विषय पर ज्ञान चर्चा एवं वार्तालाप भी करते रहते थे, और आज जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, आज जब दूर भाष बस हाँथ का और उँगलियों का खेल बनके रह गया है, तो जानकार ही कम बचे हैं, और जो हैं भी, वे मौन बने रहते हैं | ऐसा क्यूँ.... और क्या ये भविष्य के लिए अछि सोच है, अतः आप ससे निवेदन है कि जो भी विद्वान् इन विषयों में ज्ञान रखते हों वे सामने आयें ज्ञान का आदान-प्रदान हो..


परम पूज्य सगुरुदेव जी के निर्देश में कई हमारे गुरु भाइयों ने सन
1990 कि दशक में पारद संस्कार करना प्रारंभ किया, WEST BENGAL इत्यादि जगहों से कई भाई हैं जो कि फेसबुक के माध्यम से भी जुड़े हुए हैं | अन्य कई-कई बातें और सामने आने हैं, अभी तो बहुत कुछ ही सामने आना बांकी है, जैसे-जैसे सदगुरुदेव कि इच्छा...


Thursday, May 29, 2014

पारद प्रश्नोत्तर -




प्र०- पारद को शुद्ध करने का एक सरल प्रकार, आरिफ जी द्वारा बताया गया, यह था कि 
पारद के समान भाग का सेंधाव लावन लें और उसमें लहसन का रस, अदरक का रस और ग्वारपाठे का रस डालकर १२ घंटे तक खरल करें, फिर डमरू यन्त्र से पारद निकाल लें, यह पारद शुद्ध एवं बुभुक्षित हो जाता है | यह स्वर्ण ग्रास कर लेता है | मगर हम तो यह जानते हैं कि आठवें संस्कार संपन्न करने के पहले पारद बुभुक्षित होता ही नहीं है, तो फिर यह कैसे संभव है ?



उ०-                          “युवा न योगी, वैद्य न रोगी,

                                 कीमिया न मांगे भीख...”


कीमियागिरी मोहम्मदन की एक विद्या थी जिसमे बिना पारद के संस्कार किये ही कुछ उपायों से उसे स्वर्ण सिद्धि दायक बना दिया जाता था ! मगर यह पद्धति मूल वैदिक पारद विज्ञानं से बिलकुल भिन्न है, इसका पारद के उच्चतम उपयोगों से कहीं कोई वास्ता नहीं था, क्यूंकि जब पारद में संस्कार ही नहीं किये गये, तो उसमे वह गुण जो हम देखना चाहते हैं, वह नहीं होगा, उस पारद का शास्त्रों में लिखा कोई भी उपयोग है ही नहीं, न रोग निवारण में, न अन्य उच्चतम संस्कारों में, इसलिए यह तरीका जबरदस्ती का तरीका ही कहा जायेगा, पारद के संस्कारों कि खासियत तो पूरे विश्व भर में मैशहूर है, जो कि इस प्रकार से तैयार पारे में नहीं मिलेगा !


प्र०- पारद विज्ञानं के तीन मुख्य संस्कार क्या हैं ?


उ०- पारद के ८ संस्कार बहु-चर्चित हैं, और किन्ही किताबों में वह दुर्लभ १८ संस्कारों का भी उल्लेख किया हुआ है, मगर इसमें भी तीन अति महत्वपूर्ण संस्कार हैं, जिन्हें समझना परम आवश्यक है | ये तीनों पारद के विभिन्न संस्कार/प्रयोगों का मूल है |



१, शुद्धिकरण – शुद्धिकरण के भी तीन बिंदु हैं, अन्तः शुद्धि, बाह्य शुद्धि एवं शुक्ष्म शुद्धि | इसमें से प्रथम दो प्रकार से शुद्धिकरण तो अभी भी प्रचलित है, मगर तीसरी प्रक्रिया मान्त्रोक्त है और वह भावना पर है, जो कि अब लुप्त प्राय है, बहुत ही गिने-चुने विद्वान् इस प्रकार से पारद शुद्धिकरण कि क्रिया जानते हैं और उसे करते हैं |


२, नियमन – नियमन संस्कार से तात्पर्य एक ऐसे अश्व से पारद के इस संस्कार कि तुलना की गयी है, जो trained कर दिया गया है, वह नियम बढ़ किया हुआ है |

३, दीपन – बुभुक्षिकरण |   


प्र०- कायाकल्प क्या है ? यह किसके माध्यम से संभव है ?


उ०- ‘काया’ का अर्थ होता है शरीर और ‘कल्प’ यानि कि परिवर्तित हो जाना | अथ काया-कल्प का अर्थ है एक विशेष प्रक्रिया से परिवर्तित एवं दिव्य शरीर कि प्राप्ति ! हमारे पूर्वज ऋषियों ने पारद के माध्यम से कायाकल्प करके एक ऐसे दिव्य शरीर कि कल्पना की थी, जो पूर्ण कुण्डलिनी जागृत हो ! अष्ट पाशों से मुक्त हो ! छल विहीन, पूर्णतः स्वस्थ शरीर... क्यूंकि रोगी व्यक्ति आत्मा को नहीं मानता | ध्यान लगाने का तरीका तो अष्ट पाशों से मुक्त होकर ही संभव है, जहाँ किसी प्रकार का भय, लज्जा, घृणा इत्यादि न रहे | और भले ही हम यह बात इतनी सहजता से न स्वीकार कर पाएं, पर हम स्वस्थ दीखते तो हैं पर हम हैं वास्तव में रोगी.. हमारी कुंडलिनी  भी जागृत नहीं है ! क्यूंकि कुण्डलिनी जागृत तो उस शिशु का है, जिसके चेहरे पर एक छोटी सी शिकन भी नहीं आती, वह कितना ही खेले थकता नहीं है, हम तो थोडा सा काम करते ही थक-से जाते हैं, यह इस बात का सूचक हैं कि हुमने कुल-कुण्डलिनी शक्ति का उपयोग नहीं सीखा |




प्र०- बुभुक्षित पारद का क्या महत्व है ?

उ०- बुभुक्षित पारद कल्प चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण अंग है | यह केवल मात्र एक अध्याय नहीं है, औरंगज़ेब से लगाकर श्यामगिरी सन्यासी, ऐ० पी० आचार्य और कृष्ण पाल शास्त्री जी तक भी इसके लिए कई जगह भटके हैं, वह बुभुक्षिकरण कि ही क्रिया है जिसे भली प्रकार से सीखकर और संपन्न कर हम पारद को ज्यादा से ज्यादा शक्ति संपन्न बना सकते हैं | इसके बाद ही हम इसे विभिन्न रत्नों का ग्रास, स्वर्ण ग्रास, हीरक ग्रास आदि देकर विभिन्न प्रकार से उपयोग कर सकते हैं अपनी इच्छा अनुसार | पदार्थ परिवर्तन में यह क्रिया बहुत अहम् भूमिका निभाती है |



प्र०- यह अति-दुर्लभ बुभुक्षिकरण क्रिया किस प्रकार से संपन्न की जाती है ?


उ०- बुभुक्षिकरण क्रिया संपन्न करने के कई तरीके हैं, पर शास्त्र मात्र इसका आभास मात्र ही करते हैं, कहीं भी इसकी पूर्ण विधि नहीं बताई होती | इस क्रिया को दिव्य वनस्पतियों के द्वारा, वानस्पतिक विष के द्वारा, खनिज विष के द्वारा, चूने इत्यादि के द्वारा संपन्न करते हैं मगर यह भी समझना यहाँ अति आवश्यक है कि बुभुक्षिकरण किस प्रकार से करें, क्यूंकि आगे यह पारद भक्षण करेगा तो वह कितनी मात्रा में भक्षण करेगा, वह इसी से तो निर्धारित होता है |


Wednesday, May 21, 2014

पारद के बारे में... ३




क्योंकि भगवान शिव के ३२ नाम हैं, भगवान शिव के ३२ रूप हैं और भगवान शिव के ३२ विग्रह हैं, इसलिए ३२ बार पारद को बद्ध करते समय उसमें स्वर्ण ग्रास दें | और ३२ बार स्वर्ण ग्रास दिया हुआ जो पारद आबद्ध होता है वह पूर्ण रूप से इस प्रकार के शिवलिंग में सहायक होता है | मगर यह बात भी बताई गयी है कि इस क्षण विशेष में ही उसको स्वर्ण ग्रास दिए जायें | स्वर्ण ग्रास देते समय इस बात का भी चिंतन रखें---


लक्ष्मी त्वां वदितं वदैत रूपितं चर्वो स्वामं पूर्वतः 
स ग्रासं वदीतं वदतम रूपितं शिवलिंग पूर्व लाभ भवेत |

...कि प्रत्येक उस क्षण को गुरु पकडे जिस क्षण विशेष में लक्ष्मी चैतन्य होती है है | यदि उस क्षण विशेष में स्वर्ण ग्रास दिया जाये तो उस शिवलिंग में लक्ष्मी स्वयं स्थापित होती ही है | पूरे १६ घंटे तक वह प्रक्रिया संपन्न करे और प्रत्येक घंटे में जब लक्ष्मी दो बार चैतन्य होती हो तो दोनों ही बार स्वर्ण ग्रास दे |

इस प्रकार से १६ घंटों में ३२ बार स्वर्ण ग्रास देकर उस पारद को पूर्ण रूप से आबद्ध करें और आबद्ध करने के बाद उससे शिवलिंग का निर्माण करें | शिवलिंग निर्माण के विषय में भी स्पष्ट बताया है - 

व्याघ्र वदितं चरेव रूपः सहितं वदेव पूर्णतः |

इस बात का चिंतन नहीं करें की समय ज्यादा व्यतीत हो रहा है या कम व्यतीत हो रहा है, मगर इस बात का चिंतन अवश्य रखें कि जब भगवान शिव और लक्ष्मी पूर्ण रूप से चैतन्य हों उसी क्षण विशेष में पारद के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ करें |

और उस पारद का निर्माण करके उसके ऊपर पुनः भगवान् शिव के ३२ रूपों का व्यामोह करें, ३२ रूपों को आबद्ध करें, ३२ रूपों को उसपर स्थापित करें | वे ३२ रूप जो भगवान् शिव के बताये गये हैं वे हैं - 


सदा शिवाय नमः, रुद्राय नमः, कालाग्नि नमः, चिंतनाय नमः, विरूपाय नमः, वैद्रवाय नमः, लक्ष्मी रूपाय नमः, कृष्ण रूपाय नमः, मुक्ति रूपाय नमः, चिन्त्य रूपाय नमः, भवेश्वर्याय नमः, आबद्ध रूपाय नमः, पूर्णत्व रूपाय नमः, चैतन्य रूपाय नमः, क्रियमाणाय नमः, कालं तरायै नमः, पूर्णस्यायै नमः, सभामभैरवायै नमः, सचिन्त्य रूपाय नमः, पारदैश्वर्यै नमः, आबद्ध लक्ष्मी नमः, अन्नपूर्णायै नमः, दीर्घ रूपायै नमः, कालमुक्तायै नमः, मृत्युरूपायै नमः, गणेश रूपायै नमः, सरस्वतेश्वर्यायै नमः, पूर्णेश्वर्यायै नमः, कल्याण रूपायै नमः, पूर्ण आबद्ध रूपायै नमः, दीर्घ रूपायै नमः, कल्याणार्थ सदां पूर्वश्याम सः दीर्घ रूपाय नमः |


इस प्रकार से इन सब रूपों का उसमें स्थापन करने के बाद चार विशेष रूपों का भी स्थापन करें -

अमृत्यु रूपाय नमः, अमृताय रूपाय नमः, कल्याण रूपाय नमः, पूर्ण कुबेर वैश्रवणाय नमः |


और इस प्रकार से जब ३६ रूपों की स्थापना होती है तो वह विग्रह अपने आप में चैतन्य, दिव्या और अद्वितीय बन जाता है | इस प्रकार भगवान् सदा शिव के पांच तोले या ११ तोले के शिवलिंग का निर्माण करें | पांच तोले के शिवलिंग में पञ्चदेव की स्थापना होती है और ११ तोले के शिवलिंग में एकादश रूद्र की स्थापना होती है | और ये एकादश रूद्र अपने आप में सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाले हैं | रावण संहिता में तो स्पष्ट रूप से कहा है -

पारदं शिवलिंगं वा स वातं वदैव र्वै
स सिद्धिं भावते रूपः स चिन्त्यं वदवै वदः |

यदि रसेश्वरी दीक्षा से संपन्न गुरु स्वर्ण ग्रास दिए हुए और विशेष मुहूर्त में निर्मित इस प्रकार के एकादश तोले के शिवलिंग का निर्माण करके उसके ऊपर ३२ विशेष भगवान् शिव के रूपों को स्थापित करके उसको किसी व्यक्ति के घर में स्थापित करता है तो यह संभव ही नहीं है कि उस व्यक्ति को भगवान् शिव के साक्षात् दर्शन प्राप्त नहीं हों |

न मंत्रं, न तंत्रं, रूपं तदेवाः सवितं सदेवं वहितं वदेवः |


इसमें न कोई तंत्र की जरुरत है, न मंत्र की जरुरत है, इसमें भगवान शिव के रूद्राभिषेक की भी जरूरत नहीं है | इस बात की भी जरुरत नहीं है कि पुष्पदंत के शिव महिम्न स्तोत्र का उच्चारण किया जाए | यह तो केवल शिवलिंग का स्थापन करने की क्रिया है, और ऐसा शिवलिंग निश्चित रूप से अपने आप में दिव्य स्वरुप प्राप्त होता है | और दिव्य स्वरूप प्राप्त होने के कारण वह पूर्ण रूप से दर्शन देने में समर्थ होता ही है | पापी से पापी, और अधम से अधम व्यक्ति भी यदि ऐसे शिवलिंग का अपने घर में स्थापन करता है तो निश्चय ही भगवान सदाशिव उसे प्रत्यक्ष दर्शन देकर के पूर्णत्व प्रदान करते हैं |

क्योंकि उस शिवलिंग में सभी रूपों के समावेश होता है, जिन रूपों के माध्यम से भगवान सदाशिव प्रसन्न होते हैं | और फिर अतुलनीय धन, वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए भी रावण संहिता में एक विशेष प्रयोग दिया गया है इस पारद शिवलिंग पर ...


(क्रमशः...)

Tuesday, May 13, 2014

पारद के बारे में.....- 2



ध्यायं पारद विस्मयवात परितं श्री रूप मेव वदा
गिरवण मदितं भवेत वरितम रूपं मदैव आवदा

पारं पारमदमुच्रूप सरीतं व्यामोह रूप वता

सिद्ध पूर्ण वदैव पूर्ण सरित शम्भो त्वमेव वदे |



जीवन में सौभाग्यशाली व्यक्ति होते हैं जो भगवान शिव की आराधना में प्रवृत्त होते हैं, उन लोगों का जीवन धन्य है जिन्होंने अपने जीवन में भगवान् पारदेश्वर के दर्शन किए हों | वे माताएं धन्य हैं जिन्होंने ऐसे पुत्रों को जन्म दिया जो भगवन पारदेश्वर कि आराधना में रत रहते हैं | और वास्तव में ही जीवन का सौभाग्य, जीवन कि पूर्णता इसी में है कि कम से कम एक बार तो अवश्य ही अपने घर में भगवान पारदेश्वर के एक विग्रह को स्थापित करें, उन पर प्रक्षालित जल को अपने शरीर पर छिडकें, उन पर अर्पित जल का अमृतपान करें और एक प्रकार से मानसिक और आध्यात्मिक पवित्रता को प्राप्त करते हुए जीवन कि उन उचाईयों को स्पर्श करें, जो जीवन को सौभाग्यशाली बनाती हैं, जो जीवन को अद्वितीय बनाती हैं, जो जीवन को जाज्वल्यमान बनाती हैं !


इस श्लोक में अत्यंत ही महत्वपूर्ण बात कही गयी है कि जीवन का सौभाग्य पारदेश्वर का दर्शन करने में है और पारद के बारे में शास्त्रों में सैकड़ों-सैकड़ों बातें लिखी हुई हैं, सैकड़ों-सैकड़ों तथ्य इस बात को सपष्ट करते हैं कि -

पारदं परमेवं वा पूर्णमेवं वदंतः सः पारद मेवतां म्युदे दर्शनाद भव मुच्यते |

पारा तो एक प्रवाहशील पदार्थ है, परन्तु अगर उसमें स्वर्ण ग्रास दिया जाए, स्वर्ण ग्रास देकर के पारद को अत्यंत ही भव्य और दुर्लभ बनाया जाए और इस प्रकार से स्वर्ण ग्रास दिए पारद को आबद्ध करके उससे शिवलिंग का निर्माण किया जाये, तो ऐसा शिवलिंग संसार का दुर्लभतम शिवलिंग होता है | ऐसा शिवलिंग घर में स्थापित करना ही जीवन की श्रेष्ठता है | ऐसे शिवलिंग की प्राप्ति ही जीवन की पूर्णता है और रावण संहिता में बिलकुल ही स्पष्ट रूप से विवेचन किया गया है कि रावण जब भगवान शिव को प्रसन्न नहीं कर सका, अत्यंत प्रयत्न करके भी जब शिव का सान्निध्य उपलब्द्ध नहीं कर सका तो उसने अपने गुरु से इस बात की याचना की मैं किस प्रकार से भगवान शिव को प्रसन्न करूँ... 

तो उन्होंने पारदेश्वर के बारे में विस्तार से विवेचन करके समझाया कि भगवान् शिव के दर्शन करने का एकमात्र उपाय पारदेश्वर की स्थापना ही है, अत्यंत शुद्ध, लौह रहित, शुभ्र ज्योत्सनित और दिव्य पारे को लेकर के ऐसा गुरु जो रसेश्वरी दीक्षा से संपन्न है, जिन्होंने अपने जीवन में रसेश्वरी दीक्षा प्राप्त की हुई है, जिन्होंने अपने जीवन में रसेश्वरी दीक्षा दी है |

‘प्रदानं उपलब्धं वा’ जिसने ली भी है और रासेश्वरी दीक्षा देने का विधान भी जिसके पास है, वह इतने उच्चकोटि के पारद को लेकर के उसको आबद्ध करने की क्रिया संपन्न करे और पारे को ठोस बनाते हुए निरंतर उसमे ३२ बार स्वर्ण ग्रास दे जिससे कि -

स्वर्णोपमं पूर्वतं मदैव तुल्य सभ्यताम
वदेव च तं ममक्ष वाट रूपः |

ऐसा स्वर्ण ग्रास दिया हुआ पारद अपने आप में ही अत्यंत भव्य और दर्शनीय बन सके | परन्तु इसके साथ एक बात और कही है -

चैवं वा वदितं वदित रूकितं चर्वो स्तां सूर्यवांन ज्ञानं नमतं वदेतं तुलितं आत्मोत्तम वाक् कृपः |

ऐसा गुरु जिसको पारा आबद्ध करने की क्रिया नहीं आती हो, ऐसा गुरु जिसने अपने जीवन में पारे को आबद्ध नहीं किया हो, ऐसा गुरु जिसने पारे को स्वर्ण ग्रास देने की क्रिया नहीं जानी हो, ऐसा गुरु जिसने रसेश्वरी दीक्षा को प्राप्त नहीं किया हो, वह उस पारदेश्वर विग्रह को निर्माण भी नहीं कर सकता, उसका स्थापना भी नहीं कर सकता ! परन्तु जिसको इस बात का ज्ञान है, जिसके पास इस बात का चिंतन है वह इस प्रकार से पारदेश्वर का निर्माण कर सकता है | रावण संहिता में एक स्थान पर स्पष्ट रूप से लिखा है - 

पुष्यं पूर्ण मदैव रूप चरितं स वित्तां पूवतःस्वर्ण ग्रासेव वदाम तुताः पूर्णमेवं वदेतः |

पुष्य नक्षत्र हो और पूर्णा तिथी हो और उसमे भी भगवान शिव के सायुज्य नक्षत्र हो, चन्द्रमा वाम हो और अग्निकोण में लक्ष्मी स्थापित हो और उस प्रकार से अद्भुत संयोगों से संपन्न जब अद्भुत योग आए तो उस क्षण विशेष में पारे को आबद्ध करें ! और पारे को आबद्ध करने के साथ-साथ उसमे स्वर्ण ग्रास भी दें, भगवान् शिव के ३२ नाम हैं, भगवान शिव के ३२ रूप हैं और भगवान् शिव के ३२ विग्रह हैं, इसलिए ३२ बार पारद को बद्ध करते समय उसमें स्वर्ण ग्रास दें | और ३२ बार स्वर्ण ग्रास दिया हुआ जो पारद आबद्ध होता है वह पूर्ण रूप से इस प्रकार के शिवलिंग निर्माण में सहायक होता है !
                                                             - from Vishwa ki Shresth Dikshayein book by Pujya Gurudev.


(क्रमशः...)

Thursday, May 8, 2014

पारद के बारे में...

Raslingam


पारा एक मूल्यवान धातु है
, जिसे संस्कारित करने से यह सभी धातुओं में सबसे ज्यादा मूल्यवान और गुणकारी बन जाता है, जिससे यह आध्यात्मिक और चिकित्सा दोनों क्षेत्रों में प्रत्येक प्रकार से पूर्णता देने में यह समर्थ हो जाता है | पारद तो एक ऐसी धातु है जो सभी अन्य धातुओं से भिन्न है, सामान्य तापमान में यह रहता है तरल रूप में, जबकि सभी अन्य धातु होते हैं ठोस ! पारद में ऊर्जा ग्रहन करने की और आकर्षण की तीव्र क्षमता होती है, इसीलिए तो इसका महत्व आकर्षण साधना , लक्ष्मी आकर्षण साधना , श्री साधना में सर्वाधिक महत्व रखता है | आपने खुद देखा होगा, जब हम एक Thermometer को अपने शरीर से सटाते हैं तो बस कुछ ही पलों में पारा फैलने लगता है, और हमारे शरीर के तापमान जितना फैल जाता है, इसकी इस प्रक्रिया को Thermal Expansion कहते हैं, इसका अर्थ ये निकलता है कि ऊर्जा से इसका सम्बन्ध आसानी से स्थापित हो जाता है, यह किसी भी प्रकार की उर्जा को ग्रहण करने में अन्य धातुओं के मुकाबले कई गुणा ज्यादा सक्षम है, अगर यह बिना संस्कारित किये और कई प्रकार के दोषों से युक्त भी ऐसा कर लेता है तो संस्कारित पारद तो निश्चित रूप से सोच से कई गुणा अधिक सकारात्मक परिणाम अवश्य देगा !

अब आप कल्पना करिए की अगर आप कोई यन्त्र या फिर पारद शिवलिंग कहीं से प्राप्त करके इसपर आप साधना संपन्न करते हैं, पूजन करते हैं, तो क्या आपको कोई सफलता पाने से रोक सकता है ?? नहीं.... सफलता तो मिलती ही है साथ ही संस्कारित पारद आपके परिश्रम को और मंत्र जप का कई-कई गुणा बढ़ाकर फल प्रदान करता है ! बस वह सही तरीके से संस्कार संपन्न हो, तो...

अगर पारद शुद्ध हो, तो वह स्वाद रहित और गंध रहित होता है, और उसमे विलक्षण क्षमता होती है ग्रहण करने की, शास्त्रों के अनुसार जड़ी-बूटी जस्ते के द्वारा भक्षित है, जस्ता बंग से, बंग तांबे से, ताम्बा रजत से, रजत स्वर्ण से और स्वर्ण संस्कारित पारद के द्वारा बुभुक्षित होता है ! परन्तु पारद के संस्कारों में पारद का मुख खोलना अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं गोपनीय क्रिया है, इसको पढके तो समझा ही नहीं जा सकता, न किया जा सकता है ! पारद कौन सी विधि से या किस प्रयोग को करने के पश्चात बुभुक्षित होगा  ?.........

और बुभुक्षित पारद भी कई प्रकार के होते हैं, आपको कितनी भूख लगी है, उतना ही भोजन आप खायेंगे. अगर 'राक्षस बुभुक्षित' हो गया है पारद तो बहुत ज्यादा स्वर्ण या अन्य ग्रास उसे देना पड़ेगा ! अगर भस्म बुभुक्षित हो गया, तो उसकी भूख अनंत है, जो भी खिला लो जितना भी खिलालो सब भस्म ही होना है | अतः इसमें यह बहुत आवश्यक है कि वह सामान्य बुभुक्षित हो, ताकि हम उसे स्वर्ण ग्रास दें, या अन्य ग्रास दें और वह उसे ग्रहण करके लाभप्रद भी हो !

पारद संस्कार में अत्यधिक महत्वपूर्ण एक और संस्कार है जिसके द्वारा हम पारद को नपुंसकता से पौरुषवान बनाते हैं, उसके बाद ही तो वह आपके लिए फलप्रद हो पायेगा ... पहले कैसे ?? अगर पारद से वेधन कराना है, और उसे पौरुषता प्रदान नहीं करी, वह अभी बाल्यावस्था में ही है, तो वह वेधन कैसे कर सकता है !
तो यह कैसे संभव हो पायेगा
, और कितना समय इसके लिए लगेगा, जब हम सामान्य मनुष्य को बड़े होने में इतने साल लग जाते हैं तो... पर मित्रों, यह सब क्रियाएं भी मुश्किल नहीं रह जातीं, बस समझाने वाला और सिखाने वाला होना चाहिए..:) जो कि आज कल दुर्लभ ही नहीं अति दुर्लभ बात है.

अब बात करते हैं इनके प्रयोगों की.. आपमें से कितनों ने विभिन्न प्रकार के लुभावने लेख पढके अपने पास पारद के विग्रह और सामग्रियां मंगायीं होंगी, पिछले कुछ वर्षों में.. जो होड़ लगी थी, उसमे कौन नहीं शामिल था ! और ऐसे-ऐसे व्यक्ती भी आज हैं जिन्होंने जल्दी-जल्दी लाखों तक की सामग्री तो मंगवा ली घर में, पर उसपे किये जाने वाले प्रयोग एक भी नहीं मालूम ! खैर प्रयोग तो आप बाद में सीख लेंगे, पहले ये तो देखें कि क्या आपने जो पारद विग्रह मंगाई है क्या वह शुद्ध पारद से निर्मित है ??

क्या उसपे काले-काले परत जम जाते हैं
, उसके ऊपर से....?
और क्या आपको उसे प्रदान करते समय ये कहा गया था कि यह धन की वर्षा सी करा देता है, पर इसके बावजूद भी आप जस के तस हैं, व्यापार ठ़प का ठप है ...? ऐसा कैसे हो सकता है, यदि शुद्ध, बिलकुल pure पारद है तो ऐसा तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही संभव नहीं है, जब शास्त्रों में लिख दिया है की ऐसे संस्कारित स्वर्ण ग्रास दिए हुए पारद के शिवलिंग के पूजन से १००० गौ दान का पुण्य मिलता है, तो वह सारा पुण्य कहाँ गया ?

कहीं किसी की जेब में तो नहीं गया........ :P

इस सब फरेब और फ्रॉड के लिए जो जिम्मेदार है, वह शक्श कौन है.....

(क्रमशः)

Wednesday, May 7, 2014

आत्मा कैसे शरीर छोडती है ?



आत्मा जिस समय शरीर का त्याग कर रही होती है, ठीक उस वक़्त रूस के वैज्ञानिकों ने Bioelectrographic Camera नामक उपकरण से अब एक प्रामाणिक तस्वीर भी निकल दी है ! इन्होंने यह कार्य किया गैस डिस्चार्ज यन्त्र के द्वारा, जिसमे की व्यक्ति के जीवत ऊर्जा के स्पष्ट तसवीरें बन जाति थीं, जब मृत्यु का वक़्त था तो उन्होंने जो तस्वीर खिंची वह पूर्ण रोप से पुरुशाक्रिती ही बनी मगर वह उर्जा उस शरीर से लगा हो चुकी थी.. इसका अर्थ ये निकलता है कि हमारी मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक हमारे शरीर के अंग तो ठीक ऐसे ही रहते हैं पर हम शरीर से परे हो चुके होते हैं, हमारी सोच तो फिर भी हमारे पास रह रही होती है, पर मस्तिष्क नाम की कोई चीज नहीं रहती....
अंग तो फिर भी सारे वही रहते हैं, मगर हा-माँस के नहीं !

श्री अरुण कुमार शर्मा जी ने बड़े अछे तरीके से अपनी पुस्तक में इसके सबूत दिए था, वह यह कि हारे सनातन धर्म में अंतिम संस्कार में दस गात्र श्राद्ध होते हैं....

गात्र का अर्थ होता है- अंग,
दस का अर्थ- १०

यानि हम एक-एक दिन में उस प्रस्थान की हुई आत्मा के एक-एक अंग का निर्माण करते हैं, चावल पिंड से, और दस दिनों में दसों अंग का निर्माण हो जाता है तब वह आत्मा के लिए नए अंगों की रचना पूर्ण मान ली जाती है, केवल इतना ही नहीं, हम उनके भोजन का भी विशेष ख्याल रखते हैं इतने दिनों तक जब तक की उसकी नई यात्रा शुरू नहीं हो जाती, हम प्रति दिन उससे सात्विक भोजन और जल प्रदान करते हैं, उन्हें जल तो अवश्य देना चाहिए ऐसा माना जाता है कि उस समय कर्ता, यानि जिसने मुखाग्नि दी हो, वह जो भी खाता है, या जो भी सुनता बोलता है, वह उसके मस्तिष्क के उस आत्मा से सम्बन्ध होने के कारण उस आत्मा तक सीधे पहुँच जाते हैं !









वैज्ञानिक कोरोत्कोव के मुताबिक़ जिन अंगों ने सबसे पहले जीवत उर्जा का त्याग किया वे अंग नाभि और सिर थे, ह्रदय पक्ष में सबसे अंत में इसका संचार बंद हुआ, यह बात अलग है कि शरीर त्यागने के घंटों बाद भी मानव का मस्तिष्क जीवित रहता है,
उनके मुताबिक़ जिन लोगों की मृत्यु अचानक और दर्दनाक होती है, उनका अगर शरीर सुरक्षित रहता है तो कई बार संभावना है की वापस उस शरीर में आत्मा प्रवेश कर ले क्यूंकि यूँ पूरे शरीर की उर्जा का क्षय नहीं हुआ होता, सबकुछ अचानक से हो गया होता है,

पर फिर भी मेरा मानना ये है कि इस संसार में अचानक से तो कुछ होता ही नहीं है, पूरी श्रृष्टि को विनाश या सृजन के बारे में पहले से ही आभास हुआ हुआ होता है, अगर किसी की मृत्यु होनी होती है तो कई ऐसे सबूत हैं जो उसे पहले ही दिख जाते हैं, जैसे की उसके अंगूठे का रंग छः महीने पहले से पीला पड़ जायेगा और चाँद पे भी एक रक्त निशान उभर आटा है, यदि कोई साधू हो, तो वह उसके चेहरे को देखकर उसके ओज से पहचान जायेगा की इसकी मृत्यु तो निकट है,

हमारे चेहरे में या सिर के आसपास जो आभा मंडल बनता है, वह सात में से किसी एक रंग का होता है, जिससे की उस व्यक्ति की प्रकृती कैसी है, यह भी पता लग जाता है, बहुत ही श्रेष्ठ साधू जन के चेहरे पर स्वर्ण आभा बनी हुई रहती है, अगर किसी व्यक्ति के आसपास लाल आभा बनी हुई है मतलब वह उग्र स्वाभाव का है, गुस्सैल प्रकृती का, कामासक्त है... यह आभा मंडल प्रत्येक चलते-फिरते आमी को तो नहीं दिखता मगर जो भी व्यक्ति ध्यान लगते हैं, या क्रिया योग करते हैं, उन्हें जरूर दिखेगा ! जब व्यक्ति का अंत समय नज़दीक होता है, तो अपने आप उसके आभा मंडल का रंग फीका पडके Grey कलर का हो जाता है !




Sunday, May 4, 2014

रहस्यमयी इतिहास, पारद का -

mummification
 
अंग्रेजी शब्द कोष में ‘
Alchemy’ शब्द असल में तीन भिन्न-भिन्न सभ्यताओं से लिए गए शब्दों से मिलकर निर्मित हुआ है, Egypt की सभ्यता जो की मृत शरीर को सुरक्षित रखने में विश्वास रखती थी, जिसका पुरातन नाम ‘Khem’ था, वह इसी विज्ञान की सहायता से ऐसा कर पाते थे ! बाद में, ग्रीक शाषक ‘Alexander’ ने इस विद्या को अपनी सभ्यता से जोड़ दिया और इस प्रकार इसमें काफी हद तक गणित के सूत्रों को भी शामिल कर लिया गया, यह ग्रीक सभ्यता में Khemia के रूप से जाना जाने लगा..
जब अरब देश ने सिरिया और इजिप्त पर सातवीं शताब्दी को हुकूमत हासिल कर ली, तब उन्होंने ग्रीक सभ्यता से यह विद्या भी सीखी और उन्होंने इसके नाम के आगे ‘अल-’ शब्द जोड़ दिया, जिसका अर्थ अरबी भाषा में
‘The’ होता है. इस प्रकार से यह ‘Al-Khemiya’, यानि “The Khemia Science’, से मिलकर जिस शब्द का निर्माण हुआ वह Alchemy के रूप से जाना जाने लगा ! इस बात से तो सभी परिचित हैं की ऊपर वर्णित सारी सभ्यता अत्यधिक संपन्न और खासकर स्वर्ण का तो अगाध भण्डार ही लिए हुए थी.. आज भी हमारे पास तूतन खामिन की जो प्राप्त टोम्ब है वह स्वर्ण की है, किसी अन्य धातु की नहीं, आप कल्पना करें एक मृत शरीर को वे लोग इतनि महंगी धातु में आखिर क्यूँ रखेंगे ??

       


हम तो बहुत महत्वपूर्ण मौकों में भी गिने चुने ही ऐसे धातु
, ज़ेवर पहनकर निकल पाते हैं, और कभी-कभी तो वह भी.... नहीं... अरब देश में आज भी इतना अधिक स्वर्ण मौजोद है की हमारे सोच से परे है.. अगर आपको ज्ञात न हो तो आप खुद मालूम कर लें, ‘अबु जेबेर’ नामक एक प्रातन कालीन लेखक ने अपने ग्रन्थ में एक सफ़ेद पाउडर का ज़िक्र किया था जो कि रांगा और कुछ अन्य मूल्यवान धातुओं को स्वर्ण में परिवर्तित करने की क्षमता रखता था. इस सफ़ेद बुरादे का नाम रखा गया था, ‘Elixir….





तो क्या हमारे भारतवर्ष में इस स्वर्ण विद्या का कभी प्रादुर्भाव हुआ ही नहीं ?? हमारे प्राचीन ऋषि जिनको की सम्पूर्ण श्रृष्टि में छुपे गूढ़ विज्ञानों का सूक्ष्म और अति-सूक्ष्म ज्ञान था, क्या इस विषय में मौन ही रहे हैं ....?

नहीं ! ऐसा कदापि नहीं है, बल्कि यह विज्ञान तो हमारे पास तबसे है, जबसे की कहीं और किसी प्रकार की सभ्यता बसने का भी ठिकाना नहीं नहीं था ! हम सब जानते हैं की महापंडित रावण से स्वर्ण की लंका बनायीं थी, यदि थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचें तो अब हमें कुछ-कुछ समझ में आ जायेगा, की ऐसा कैसे संभव हो पाया होगा. यही नहीं अगर उनके बारे में और तथ्य ढूँढें जायें तो मालूम पड़ेगा कि वह तो अत्यधिक दीर्घ समय तक यौवनवान और पौरुष के साथ जीवित रहे, भला यह देह - वेधन के अलावा और कैसे संभव हो सकता है ....और लंकेश ही क्यूँ, अगर हम अभी निकटतम इतिहास को टटोलें तो उसमे भी ‘वीर विक्रमादित्य’ जैसे गौरवपूर्ण राजा हुए हैं, जिन्होंने अपने समय में तांबे के सिक्कों को बदले स्वर्ण मुद्रा चला दी थी.. यह सब भला कैसे संभव हुआ होगा


Mercury
और Sulphur, इन दोनों को सभी धातुओं का मूल माना जाता है, और मन जाता है की अल्प-मूल्यक धातु, जैसे रांगा के अणुओं को तोड़कर पुनः इन्हीं के सही उत्पात में मिला देने से(Elixir की मदद से) धातु परिवर्तन संभव है ! इसी Elixir को हमारे शोध कर्ताओं ने जो नाम दिया, वह था- सिद्ध सूत ! मगर यह सिद्ध सूत कुछ धातुओं को स्वर्ण में तो परिवर्तित कर सकता है, किन्तु वह अगर स्वर्ण से मिश्रित किया जाये तो ऐसा पदार्थ निर्मित होता था जो की दे पाता था अक्षुण यौवन.. और अमरत्व भी ! फिर यही खोज उस काल में और उन देशों में जाने लगी Philosopher’s Stone, Elixir of Life इत्यादि के नाम से..





दोस्तों पारद का इतिहास तो काफी रोचक है, मगर आपको मेरी बात शायद थोड़ी भी लग सकती है, वह ये की हम जिस कारण से इस महत्वपूर्ण विद्या कि ओर ज्यादा आकर्षित होते हैं, यानि धातु-परिवर्तन, वह तो एक प्रकार से मेरे हिसाब से व्यर्थ-सा है.. ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है वह .. इसके बजाये इस अति गुह्य विद्या का और एक अति महत्वपूर्ण उपयोग है, वह है शरीर के विभिन्न रोगों के उपचार.


सिकंदर जिसने लगभग पूरी दुनिया को जीत लिया था, केवल भारत को छोड़ के, उसने मृत्यु के समय अपनी आखरी इच्छा व्यक्त की.... कि उसकी लाश को जब ले जाया जाये, तो उसके दोनों हाँथों को नीचे झुला दिया जाये, फिर उसे अंतिम कर्म के लिए ले जाया जाये. वह पूरी दुनिया को यह सन्देश देन चाहता था कि सिकंदर जैसा महान सम्राट पूरी दुनिया के खजाने का मालिक..... वह भी जाते समय दोनों हाँथों से खाली ही था, निहत्था गया.. जिस प्रकार निहत्था आया था, उसी प्रकार निहत्था गया... तो जब वह भी अपने अगाध हीरे-मोती के पहाड़ को अपने जेब में रखके परलोक नहीं जा पाया, तो हम क्यूँ इतने छोटे-छोटे से लोभ में पड़कर राह से भटक जाते हैं ! मनुष्य का मूल उद्देश्य तो मानवता हो सकता है, मानवता को जिन्दा रखना हो सकता है, जन-साधारण की सेवा हो सकता है, न की कुछ रुपये और क्षणिक सुख इकट्ठा करना..

सदगुरुदेव जी ने स्वर्ण-तन्त्रं नामक जो पुस्तक लिखी थी, उसमे उन्होंने एक से लेकर ८ वें तक के पारद संस्कार और प्रत्येक संस्कार के रोग निवारण के गुण और उपयोग के बारे में चर्चा की थी, अब हम कुछ-कुछ तो समझ सकते हैं, आखिर क्यूँ उन्होंने उसका दूसरा हिस्सा लिख देने के बावजूद सामने नहीं आने दिया, ८ वें संस्कार तक तो पारद शरीर के विभिन्न रोगों को ख़त्म करता है, इसके बाद आटा है विषय धातुवाद.... मगर यह भी हम सब जानते हैं की जितनी आसानी से मैंने यह सब लिख दिया और आपने इसे पढ़ लिया, यह विद्या इतनी भी सरल तो न होगी... नहीं तो क्यूँ आज तक की भी इस पद्धति को कोई ठोस आधार न मिल सका?? फिर तो तमाम डॉक्टरों का तो काम चौपट होना निश्चित ही था.. लोग सालों डॉक्टरी की पढाई करने की बजाये खरल करने में और संस्कार सीखने में समय लगा रहे होते. क्या पता शायद आने वाले युग में ऐसा कोई हो जो इस विद्या के द्वार खोल सके, जन-साधारण के लिए. क्यूंकि विषय में काफी कुछ रहस्योद्घाटन तो परम पूज्य सदगुरुदेव ने अपने शिष्यों के समक्ष कर ही दिया था, अब देखते हैं वह कौन से शिष्य होते हैं जो आगे आते हैं और इसे अपनाते हैं ...............

प्रतीक्षा में.. हम सब...

क्यूंकि मेरा विश्वास है, की जब रात के बाद सुबह की पीली किरणें दिख ही गयी हैं, तो अब सूर्योदय भी जल्द ही होगा...
J

Thursday, May 1, 2014

परामनोवैज्ञानिक ऊर्जा कैसे प्राप्त की जाती है

शरीर को संचालित करने के लिए दो क्रियाएं आवश्यक हैं, एक तो स्वांस लेना और दूसरा स्वांस छोड़ना, इन दोनों ही क्रियाओं के उचित तालमेल को 'प्राणायाम' कहते हैं !

इस प्राणायाम के माध्यम से प्राण, अर्थात् मन को बांधा जाता है, उसे आयाम दिया जाता है, और फिर संसार के तीव्रतम मंत्र जिसे तिब्बत्ती भाषा में गायत्री मंत्र कहा जाता है, उस मंत्र "सोऽहं" को निरंतर जप कर उक्त शक्ति प्राप्त की जाती है |

"सो" के द्वारा स्वांस अन्दर लिया जाता है, और "हं" के द्वारा स्वांस को निक्षेप किया जाता है, और इस प्रकार से एक पूरा विद्युत प्रवाह बनाया जाता है, और वह विद्युत प्रवाह तीव्र वाहक एवं उच्चतम शक्ति संचिभूत करता है |

और इसी शक्ति को संचिभूत कर तीसरे नेत्र के द्वारा हजारों मील दूर उड़ते हुए, या चलते हुए प्रक्षेपास्त्र अथवा राकेट को समाप्त किया जा सकता है, उस साधक में श्राप देने की अथवा वरदान देने की अद्भुत क्षमता आ जाती है !

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मानसिक तनाव से
मुक्ति का
अमोघ मंत्र -

ॐ परम तत्वाय
नारायणाय
गुरुभ्यो नमः ||

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