कृष्णमूर्ति पद्धति सिद्धांत -
12 राशियों में से किसी भी एक राशि में स्थित ग्रह का दायरा काफी लम्बा होता है,
अर्थात पूरे 30 अंशों कि राशि में तो वह ग्रह कहीं भी हो सकता है न, तो इस वजह से वे सभी कुण्डलियाँ जिसमें सूर्य कन्या राशि में स्थित होगा उसका फल एक सा ही होगा ऐसा नहीं बताया जा
सकता !
कृष्णमूर्ति पद्धति में एक नयी विधि को सामने लाया गया, जिसमें किसी ग्रह को केवल उसके
राशि और भाव में स्थित होने भर से ही फलादेश न करते हुए, उस ग्रह के नक्षत्रेश,
उपेश और उनका उस ग्रह पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसे देखकर फिर फलादेश किया जाता है
| कहने कि बात नहीं है कि इस प्रकार से गणना करने पर सत्यता के काफी निकट और यदि
सूक्ष्मता से देखें तो आश्चर्यजनक रूप से सही फल निकलता है |
सभी ग्रह बसंत सम्पात में निरयण पद्धति के अनुसार भ्रमण करते हैं जिसे गोचर कहते हैं
| इस प्रकार मेष राशि (30 अंश) में आने पर सबसे पहले वह ग्रह अश्विनी नक्षत्र (13 :
20 अंश) में गोचर करेगा, फिर उसी राशि के अगले नक्षत्र भरणी में, इस प्रकार से अंत
में वह अंतिम राशि मीन में रेवती नक्षत्र में होगा | इस प्रकार से सभी 27
नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होता है | अब प्रत्येक नक्षत्र (13 : 20) का दायरा भी
काफी बड़ा है इसलिए उसे विमशोत्तरी दशानुसार 9 भागों में विभाजित करते हैं जिसे ‘उप’
कहते हैं | नक्षत्र के स्वामी को नक्षत्रेश कहते हैं और उप - स्वामी को उपेश |
सामान्यतः तो हम यही जानते रहे हैं कि गुरु, शुक्र, शुभ संगत बुद्ध, शुक्ल पक्ष का
चन्द्र शुभ ग्रह होते हैं,
और
सूर्य, मंगल, शनि, राहू और केतु अशुभ परन्तु कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार किसी गृह का शुभ फल प्राप्त होना है या अशुभ यह उस ग्रह के उप – नक्षत्र में स्थित होने से तय होता है, अर्थात उपेश जिन शुभाशुभ भावों का स्वामी होगा वह तय करेगा कि वह ग्रह कैसा फल देगा !
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