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Tuesday, January 28, 2014

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेवं समर्पयेत्



कुण्डलिनी जागरण मंत्र- 



ॐ ह्रीं मम प्राण देह रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय ह्रीं ॐ नमः ||


सिद्ध स्फटिक माला से, गुरु चित्र सामने रखकर, सवा लाख मंत्र जाप करने से शरीर की जड़ता समाप्त होकर कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया बनती है |

२). सर्व कार्य सिद्धि मंत्र -

आर्थिक रूप से सम्पन्नता प्राप्त करने के लिए, व्यापार में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए, इस मंत्र को दीपावली की रात्री २१ माला मूँगे की माला से जप करें यह मंत्र सिद्ध हो जाता है, फिर इसके बाद नित्य उसी माला से इसकी एक माला फेरते रहे, तो जिस भी कार्य को करे उसमे पूर्ण सफलता मिलती रहती है | इसके लिए ये अनिवार्य है की माला मंत्र प्रनाश्चेतना युक्त हो और असली मूँगे की माला हो, बाज़ार में २०० रुपये में सस्ती माला मूँगा कहके बेचते हैं उससे सफलता नहीं प्राप्त की जा सकती |

ॐ नमो महादेवी सर्व कार्य सिद्धकरणी जो
पाती पूरे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवतन
मेरी शक्ति गुरु की भक्ति श्री गुरु गोरखनाथ
की दुहाई फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा |


३). वशीकरण प्रयोग -  

यह आश्चर्यजनक वशीकरण साबर मंत्र है इसके द्वारा मनुष्य तो क्या पत्थर को वश में किया जा सकता है | सफ़ेद धोती में सफ़ेद आसन पर बैठकर निम्न मंत्र की २१ माला १७ दिन नित्य सिद्ध हकीक माला या स्फटिक माला से फेरे, और अमुक के स्थान पर उसका नाम ले, जिसको वश में करना हो | बगल में धी का दीपक प्रज्ज्वलित करे, लोहबान धुप सुलगा ले | इसका दुरूपयोग न करे और न किसी और को बतावे अन्यथा असर ख़त्म समझे | जिनकी गुरु के प्रति दृढ़ आस्था है उनपर भी ऐसे प्रयोग काम नहीं करते उल्टा गलत परिणाम चाहने पर ही विपत्ती आती है |

काली केश कटारिणी नव-नव धावे रूप
सिद्ध होए कारज करे (अमुक) को वश में करे
सात ताले तोड़ हाजर करे जो न करे तो
तेरो कलेजो काली फाड़ खावे ठं ठं फट् ||


*********************त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेवं समर्पयेत्*********************

विदाई का क्षण था.. योगी निखिलेश्वरानंद जी भारी मन से गुरु चरणों से अलग होने को बाध्य हो रहे थे, गुरु ने आज्ञा दी की तुम्हें जो मैंने काम सौंपा है उसको पूरा करना है, पर निखिलेश्वरानंद जी की आत्मा छटपटा रही थी, वे एक क्षण के लिए भी गुरु चरणों से अलग नहीं होना चाहते थे | उनके शरीर का रोम-रोम गुरु चरणों पर व्याप्त था, पर गुरु की आज्ञा भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी !



निखिल का शरीर उनके चरणों पर टिका हुआ था | गुरु ने अपने दोनों बाँहों से उसे ऊपर उठाया, आँसुओं से भरे चेहरे को अपनी ओर किया और बोले- तू मेरा सर्वाधिक प्रिय शिष्य है, और मैं तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर अत्यंत गौरव अनुभव कर रहा हूँ, साधना और सेवा का तूने जो उदाहरण उपस्थित किया है, वह दुर्लभ है, मैं आज तुम पर अत्यधिक प्रसन्न हूँ, तू आज जो भी माँगेगा सहर्ष दूंगा, दुनिया की कोई भी शक्ति, कुछ भी तू माँग सकता है |



निखिल ने एक क्षण के लिए गुरु के चेहरे की ओर देखा, और फिर नज़रें चरणों पर टिका कर बोला, जब आप मेरे पास हैं तब मैं और क्या चाहना करूँ ? जब मैं अपने आपको आपके चरणों में लीन कर ही चुका हूँ तो फिर मेरा अस्तित्व ही कहाँ रह गया है ? और जब मेरा अस्तित्व ही नहीं है तो मैं क्या माँगू ? यह शरीर, मन, प्राण, देह, रोम, प्रतिरोम, सब कुछ ही तो आपका है.. 

“त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेवं समर्पयेत्..”

Saturday, January 25, 2014

सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं ‘दुर्गा सिद्धसम्पुट मंत्र’




दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का वह भाग है जिसमें देवी का वर्णन है | यह अपने आप में इतना दिव्य और प्रभावपूर्ण भाग है कि जो बाद में स्वतंत्र रूप से ही जाना जाने लगा | दुर्गा सप्तशती का प्रत्येक श्लोक एक विशिष्ठ मंत्र ही है | उन्हीं में से कुछ चुने हुए मंत्र यहाँ दिए जा रहे हैं जो की साधक के सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने में सक्षम है और इनका प्रभाव अचूक ही होता है | इसका लाभ दो प्रकार से लिया जा सकता है, दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक श्लोक के साथ सम्पुट देकर, और दूसरा सीधे ही सम्बंधित मंत्र की नित्य पांच मालाएं फेर कर | नवरात्रों में इसका विशेष महत्व है, वैसे शाक्त तो प्रतिदिन इसे करते हैं | चण्डी पाठ में तो अगर थोड़ी सी भी भूल हो जाये तो पूरा पाठ ही विफल हो जाता है, परन्तु साधक इन मन्त्रों के माध्यम से अवश्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते है अतः आप भी इसका लाभ उठाएं |


१). विश्व के कल्याण के लिए-


विश्वेश्वरी त्वं परिपासि विश्वं,
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वः |
विश्वेशवन्द्या भवति भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भाक्तिनम्राः ||

२). विपत्ति नाश के लिए- 


शरणागत दीनार्तपरित्राणपरायणि |
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ||


३). आरोग्य और सौभाग्य प्राप्ति के लिए-


देहि सौभाग्यमारोग्य देहि में परमं सुखम् |
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ||


४). सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए-


पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारीणीम् | 
तारिणी दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् || 


५). बाधा शांति के लिए- 


सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरी | 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ||



६). दारिद्रय दुखादिनाश के लिए- 



दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः | 

सवर्स्धः स्मृता मतिमतीव शुभाम् ददासि ||

दारिद्रयदुःखभय हारिणी का त्वदन्या |

सर्वोपकारकरणाय सदाऽर्द्रचिता ||

७). सर्व कल्याण के लिए -


सर्व मङ्गल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके |
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ||


८). प्रसन्नता प्राप्ति के लिए -


प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वातिहारिणी |
त्रैलोक्यवासिनामिड्ये लोकानाम् वरदा भवः || 


९). बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए -



सर्वावाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुतान्वितः |
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः || 


१०). भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिए -



विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् |
रूपं देहि जायं देहि यशो देहि द्विषो जहि ||


११). स्वर्ग और मुक्ति के लिए -


सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य हृदि संस्थिते |
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ||

इन मन्त्रों का जप किसी भी महीने की दशमी तिथि या फिर चतुर्दशी से भी शुरू कर सकते हैं अथवा नवरात्री में करें. दिन में या रात्रि में कभी भी ५ माला नित्य या फिर पूर्ण सिद्धि के लिए सवा लाख का अनुष्ठान ९ दिनों में संपन्न करें, स्फटिक, मूंगा या रुद्राक्ष माला से. शत्रु मारण कार्य में सर्प-अस्थि माला का इस्तेमाल होता है | 

Thursday, January 23, 2014

ईष्ट निर्धारण जन्म-कुण्डली से

पिछले लेख को पढके अधिकतर साधकों के मन में ये प्रश्न उठा कि ये कैसे ज्ञात करें की उन्हें किस साधना में जल्दी सफलता मिलेगी ?? तो यह तथ्य भी वह अपनी जन्म-कुंडली को दखकर बड़ी सरलता से पता कर सकता है | ज्योतिष और कुण्डली अध्ययन भले ही दुरूह और पेचीदा विज्ञान रहा हो मगर कुछ निर्धारित योगों का मिलाप करना तो किसी भी व्यक्ति के लिए सहज सुलभ है | आप भी बस थोड़े प्रयत्न से ही इसे देख सकते हैं और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं | यह योग सर्व प्रथम पूज्य गुरुदेव ने स्पष्ट किये थे जिसे पूरे भारतवर्ष के विद्वानों ने सराहा है और प्रशंशा की है | 



जन्म-कुण्डली में 12 घर होते हैं, जिसे भाव कहते हैं | इसमें 9वें घर, नवम् भाव से उपासना का ज्ञान होता है | इससे सम्बंधित तथ्य इस प्रकार से हैं -







१. यदि जन्म-कुण्डली में बृहस्पति, मंगल एवं बुद्ध साथ हो या परस्पर दृष्टि हो तो वह व्यक्ति साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |

२. गुरु-बुद्ध दोनों ही नवम भाव में हो तो वह ब्रह्म साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है |

३. सूर्य उच्च का होकर लग्नेश के साथ हो तो वह श्रेष्ठ साधक होता है |

४. यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो तो वह स्वयं मंत्र स्वरुप हो जाता है, मंत्र उसके हाथों में खेलते हैं |

५. यदि दशमेश दशम स्थान में हो तो वह व्यक्ति साकार उपासक होता है |


६. दशमेश शनि के साथ हो तो वह व्यक्ति तामसिक उपासक होता है |

७. अष्टम भाव में राहू हो तो जातक अद्भुत मंत्र-साधक तांत्रिक होता है |

८. दशमेश का शुक्र या चन्द्रमा से सम्बन्ध हो तो वह दूसरों की सहायता से उपासना-साधना में सफलता प्राप्त करता है |

९. यदि पंचम स्थान में सूर्य हो, या सूर्य की दृष्टि हो तो वह शक्ति उपासना में पूर्ण सफलता प्राप्त करता है |

१०. यदि पंचम एवं नवम भाव में शुभ बली ग्रह हों तो वह सगुणोपासक होता है |


११. नवम भाव में मंगल हो या मंगल की दृष्टि हो तो वह शिवाराधना में सफलता पा सकता है |

१२. यदि नवम स्थान में शनि हो तो वह साधू बनता है | ऐसा शनि यदि स्वराशी या उच्चराशी का हो तो व्यक्ति वृद्धावस्था में विश्व प्रसिद्द सन्यासी होता है |

१३. जन्म-कुंडली में सूर्य बली हो तो शक्ति उपासना करनी चाहिए |

१४. चन्द्रमा बलि हो तो तामसी उपासना में सफलता मिलती है |

१५. मंगल बली हो तो शिवोपासना से मनोरथ प्राप्त करता है |

१६. बद्ध प्रबल हो तो तंत्र साधना में सफलता प्राप्त करता है |


१७. गुरु श्रेष्ठ हो तो साकार ब्रह्म उपासना से ख्याति मिलती है |

१८. शुक्र बलवान हो तो मंत्र साधना में प्रणता पाता है |

१९. शनि बलवान हो तो तंत्र एवं मंत्र दोनों में ही सफलता प्राप्त करता है |


२०. ये लग्न या चन्द्रमा पे दृष्टि हो तो जातक सफल साधक बन सकता है |

२१. यदि चन्द्रमा नवम भाव में हो और उसपर किसी भी ग्रह की दृष्टि न हो तो वह व्यक्ति निश्चय ही सन्यासी बनकर सफलता प्राप्त करता है |

२२. दशम भाव में तीन ग्रह बलवान हों, वे उच्च के हों, तो निश्चय ही जातक साधना में सफलता प्राप्त करता है |

२३. दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो जातक तांत्रिक होता है |

२४. दशम भाव में उच्च राशी के बुद्ध पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक जीवन मुक्त हो जाता है |

२५. बलवान नवमेश गुरु या शुक्र के साथ हो तो व्यक्ति निश्चय ही साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |

२६. यदि दशमेश दो शुभ ग्रहों के बिच में हो तो जातक को साधना में सम्मान मिलता है |

२७. यदि वृषभ का चन्द्र गुरु-शुक्र के साथ केंद्र में हो तो व्यक्ति उपासना क्षेत्र में उन्नत्ति करता है |

२८. दशमेश लग्नेश पर परस्पर स्थान परिवर्तन योग यदि जन्म-कुण्डली में हो तो व्यक्ति निश्चय ही सिद्ध बनता है |

२९. यदि सभी ग्रह चन्द्र और गुरु के बीच हों तो व्यक्ति तांत्रिक क्षेत्र की अपेक्षा मंत्रानुष्ठान में विशेष सफलता प्राप्त कर सकता है |

३०. यदि केंद्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो साधक प्रयत्न कर किसी भी साधनों में सफलता प्राप्त कर सकता है |


इसके अलावा भी और कई योग होते हैं, साधक यूँ एक से ज्यादा देवी-देवताओं की अर्चना भी कर सकता है, जैसे की अगर किसी के ईष्ट राम हैं तो वह लक्ष्मी साधना भी कर सकता है, शिव साधन भी करे, हनुमान साधना भी करे ही क्यूंकि गृहस्थ जीवन में पूर्णता प्राप्त करने के लिए कई देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करना सहायक ही होता है |
- "मंत्र रहस्य" by Dr. Narayan Dutt Shrimali.

Monday, January 20, 2014

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि






कुन्नु भाई हीरा भाई मोड़ा गुजराती व्यक्ति हैं, जीवन के उत्तरार्ध में लगभग
पचास वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार जगदम्बा साधना की और
पहली बार में ही उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली है, माँ जगदम्बा के द्वारा
दी हुई दिव्य माला इनके पास है और सूरत में इनके घर पर
सैंकड़ों हजारों साधू संतों ने भी इस माला के दर्शन किए हैं | आश्चर्य की बात
 तो यह है की माँ के द्वारा दी हुए इस माला पर नास्तिक से नास्तिक
व्यक्ति की भी नज़र पड़ती है तो वह भी एक भाव और
श्रद्धा से भर जाता है और तुरंत ही समाधि लग जाति है | सीधे- सादे
गुजराती साधक कुन्नु भाई का आत्मकथ्य उसी के ज़ुबान से..




मैं एक सीधा-सादा सरल गायत्री उपासक रहा हूँ, मेरा छोटा सा कारोबार है, गायत्री के प्रति मेरी अखण्ड आस्था रही है, और मैं ही नहीं अपितु मेरे घर की दोनों पुत्रियाँ, पुत्र और पत्नी भी गायत्री उपासक रहे हैं |
मैं नित्य 51 माला गायत्री मंत्र की फेरता, और इसके बाद ही अपनी दुकान पे जाता, परन्तु पिछले पांच वर्षों में मेरी आर्थिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया, यह अलग बात है की मैं भूखा नहीं मरा, परन्तु धीरे-धीरे व्यापार कमजोर पड़ने के कारण निरंतर कर्जा होता गया, फलस्वरूप कुछ व्यक्तियों ने मेरे ऊपर मुकदमे दायर कर दिए |  

इस प्रकार पिछले साल-डेढ़ साल से मैं बहुत अधिक परेशान था, लगभग चार-पांच मुकदमे लोगों ने ऊपर कर दिए थे, इसके अलावा मेरे चाचा ने भी मकान से बेदखल करने के लिए मुकदमा दायर कर दिया था, फलस्वरूप मुझे मकान छोड़कर किराए के मकान में रहना पड़ा | 

इस प्रकार मैं आर्थिक स्थिति से काफी कमजोर होता चला जा रहा था, कुछ तो व्यापार में घाटे से और कुछ मुकदमे में फसने के कारण मैं दिवालिया होने की स्थिति में आ गया था | इतना होने पर भी मेरी आस्था में कोई कमी नहीं आई थी, मैं उसी प्रकार से मंत्र जप करता रहा, परन्तु कभी-कभी मेरे मानस में एक दूसरा विचार भी आता की इतना मंत्र जप करने के बाद भी मुझे क्या मिला ? मेरी स्थिति में क्या सुधार हुआ ? कभी-कभी तो मैं पूजा घर में रो-रो कर माँ गायत्री के सामने अपनी व्यथा भी कहता, इससे कुछ क्षणों के लिए मेरा जी तो हल्का हो जाता, परन्तु मेरी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया !



इन्ही दिनों राम भाई मुझे मिले और इन्होंने श्रीमाली जी के बारे में बताया, मैं राम भाईजी के साथ ही जोधपुर जाकर उनसे मिला, मझे वे सरल और सात्विक व्यक्ति नजर आये | मैंने उन्हें किसी भी प्रकार की दक्षिणा या भेंट आदि नहीं दी, फिर भी वे इतने ही सरल, निस्पृह और आत्मीय भाव से मुझे मिले इन सबका मेरे चित्त पर बहुत गहरा और अच्छा प्रभाव पड़ा |



मैंने उनके सामने सारी बात स्पष्ट कर दी कि मैं गायत्री माँ का उपासक हूँ, मेरी रूचि शक्ति-साधना में है, आप मुझे ऐसा मार्ग बताएं जो मेरे लिए उचित हो और जो साधना मैं कर सकूँ |



मैंने आगे बताया की इतना अधिक मैं गायत्री मंत्र जप चुका हूँ कि अब उसपर से मेरा विश्वास डोलने लगा है | मैंने अनुभव किया है की बिना किसी अन्य साधना के केवल गायत्री मंत्र के जप से आज के युग में जीवन में पूर्णता नहीं प्राप्त हो सकती |


उन्होंने मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुना, उन्होंने गायत्री साधक के पक्ष में या विपक्ष में कुछ भी नहीं कहा इतना अवश्य कहा की जीवन में गायत्री मंत्र जप का भी महत्व है, परन्तु तुम्हारे शरीर की बनावट और शारीरिक पुंज इस प्रकार से है की तुम्हारे शरीर में शक्ति का विशेष महत्व है, प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक साधना में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, हर एक मानव के शरीर की बनावट और मानसिक ऊर्जा का संवेग अलग अलग होता है अतः उसी के अनुरूप साधना का चयन करना चाहिए, किसी के लिए शिव साधना सभी दृष्टियों से अनुकूल है, तो किसी अन्य के लिए राम या दुर्गा साधना.. यह तो गुरु ही बता सकते हैं कि तुम्हारे शरीर की संरचना का निर्माण किस प्रकार से है, और उसे किस प्रकार की साधना संपन्न करनी चाहिए जिससे की वह कम समय में ही व्यापारिक तथा भौतिक दृष्टि से सफलता पा सके |



आगे उन्होंने बताया कि आपके शरीर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, कि आपके प्राणों की ऊर्जा जगदम्बा साधना के अनुकूल है, आप भगवती जगदम्बा साधना करें इससे आप जल्द ही अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाकर, आर्थिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं |


मेरे आगे पूछने पर उन्होंने मुझे दुसरे दिन आने के लिए कहा, जब मैं दुसरे दिन उनके निवास स्थान पर पहुँचा तो बहुत अधिक भीढ़ थी, फिर भी कुछ समय बाद मझे उनसे मिलने का मौका मिल गया | मिलते ही उन्होंने मुझे जगदम्बा साधना की विधि समझाई और मंत्र जाप दिया और मुझे कहा कि आपको ज्यादा दिन यहाँ रुकने की जरुरत नहीं है, आप अपने निवास स्थान पर भी निष्ठा पूर्वक जिस प्रकार से मैंने आपको साधना बताई है, आप साधना कर सकते हैं, आपको भगवती जगदम्बा के साक्षात् दर्शन प्राप्त हो सकते हैं और आप अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं | 

मैं राम भाई के साथ घर आ गया और साधना की तैय्यारी करने लगा | उन्होंने बताया था की किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा यानि अमावस्या के दुसरे दिन से ये साधना शुरू की जा सकती है | मैं निश्चित दिन स्नान कर सफेद धोती धारण कर आसन पर बैठ गया, ऊपर एक सफ़ेद ही चादर ओढ़ ली थी | सामने बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर उसपर जगदम्बा का सिंघ्वाहिनी रूप का चित्र स्थापित कर दिया था | सामने दाईं ओर घी का दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया था और बाईं ओर सुगन्धित धुप जला दी थी |

जोधपुर से आते समय मैंने उनसे गुरु मंत्र लेकर शिष्य बन गया था, अतः दाईं ओर उनका चित्र स्थापित कर दिया था और उनके सामने ही अगरबत्ती और एक दीपक जला दिया था | मुझे बताया गया था की मूँगे की माला से या स्फटिक की माला से ये मंत्र जाप किया जाए, तो निश्चय ही कार्य में सफलता प्राप्त होती है | 

रात्री को 9 बजे से मैं आसन पर बैठ गया था | मेरा मुख पूर्व की ओर था, सामने भव्य जगदम्बा का चित्र था, दाईं ओर मैंने गुरुदेव का चित्र स्थापित कर दिया था, और बाईं ओर मैंने कार्य सिद्धि के लिए गणपति को स्थापित कर दिया था | 

इसके अलावा शुद्ध जल का लोटा, पुष्प, केसर एवं भोग भी मैंने रख दिया था | सबसे पहले निम्न मंत्र से भगवती का पूजन किया और उनको भोग लगाकर फूलों का हार पहनाया -

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके |
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ||

इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लिया कि मैं, (अमुक) गोत्र, (अमुक) पिता का पुत्र, आपको प्रसन्न करके आपके प्रत्यक्ष दर्शन की कामना हेतु यह प्रयोग प्रारंभ कर रहा हूँ | 

इसके बाद मैंने गुरुदेव के बताये अनुसार संसार प्रसिद्ध ‘नवार्ण मंत्र’ की एक माला फेरी-

|| ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे || 
|| AING HREENG KLEENG CHAMUNDAYEI VICCHE ||

इसके बाद मैंने गुरुदेव के बताये हुए इस मंत्र की 101 मालाएं संपन्न की -


|| ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः ||

|| OM HREENG DUNG DURGAYEI NAMAH ||



जब सारी मालाएं फेरनी हो गयी तब उसी जगह में निचे जमीं पर ही बिस्तर बिछाकर सो गया | इस साधना में भूमि शयन करना चाहिए, एक समय सात्विक भोजन ही करना चाहिए और पूर्ण ब्रह्मचर्य रखना चाहिए | कुल पांच लाख जपने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है | 


मैं नियमपूर्वक इस प्रयोग को संपन्न करता रहा, प्रत्येक दिन मंत्र जाप के बाद एक अपूर्व आनंद की अनुभूति होती रही | मुझे विश्वास था की मैं अपने उद्देश्य में अवश्य सफल हो जाऊंगा | 

पांचवे रोज जब मैं रात्री को ३ बजे मंत्र जप समाप्त करके सोया, तब स्वप्न में स्पष्ट रूप से मझे सिंह के दर्शन हुए ! विशाल और सौम्य सिंह .. उसके गर्दन के बाल दोनों तरफ झूल रहे थे.. ऐसा लगा मानों माँ का दूत आया हो !

स्वप्न में ऐसा लगा, जैसे मैं साधना कर रहा हूँ, और सामने शेर आया है.. और मनुष्य की आवाज में कह रहा है, कि तुम सही रास्ते पर चल रहे हो, परन्तु जब तक साधना पूरी नहीं हो जाये, तब तक दूकान पर न जाओ | क्यूंकि व्यापारिक कार्यों में चाहते, न चाहते हुए भी असत्य बोलना पड़ जाता है, और उससे ‘जिव्हा दोष’ लगता है इसलिए कल से दुकान पर नहीं जाओगे और भूल करके भी साधना समाप्ति से पहले असत्य नहीं बोलोगे | ऐसा कहकर शेर अपनी पूंछ का झपट्टा देकर मुड़ गया और मेरी आँख एकदम से खुल गयी ! मझे वह दृश्य और अपने शरीर पर उसका झपट्टा बराबर महसूस हो रहा था, मैंने अनुभव किया की वास्तव में ही मुझे सही अनुभव हुआ है और मैंने अगले दिन से ही घर से बाहर जाना कम कर दिया, कम लोगों से ही मिलता ताकि अनजाने में भी मुँह से असत्य उच्चारण न हो जाये |

मैंने जोदोध्पुर टेलीफोन लगाया तो एक घंटे बाद टेलीफोन लगा, पर व्यावधान होने की वजेह से पूरी बात नहीं हो पाई, पर ज्यों ही टेलीफोन लगा, त्यों ही गुरुदेव ने कहा तुम्हें कल रात के स्वप्न में जगदम्बा के वाहन सिंह ने जो मार्गदर्शन किया है, उसी प्रकार से साधना करते रहो, तुम सही रास्ते पर चल रहे हो... और इसके आगे के शब्द न तो मैं व्यवधान के कारण सुन सका और न तो अपनी बात ही कह सका, परन्तु मैं आश्चर्य कर रहा था की मेरे बिना कुछ कहे ही गुरूजी को मेरे स्वप्न के बारे में कैसे ज्ञान हो गया !


मैं पुलकित था की मुझे जगदम्बा के गण के दर्शन हुए हैं, और टेलीफ़ोन पर भी गुरूजी की ध्वनि सुनने को मिली है, मैं उसी उत्साह से साधना में लगा रहा |

इस प्रकार 10 दिन बीत गए, 11वें रोज रात्रि में मैं मंत्र जाप कर रहा था, अनवरत रूप से मेरी माला चल रही थी, लगभग दो बजे अचानक ऐसा लगा जैसे की मेरी छाती पर जोरों का धक्का लगा हो, मेरी माला गिरते गिरते बची, पूरा कमरा एक दूधिया प्रकाश से भर गया | मैं एक क्षण के लिए तो अकचका गया, की यह क्या हो गया है, मेरी आँखें पूरी तरेह से खुल नहीं पा रही थी, पर जब एक दो क्षण बाद मेरी आंखें खुली तो मेरे सामने सिंह पर बैठी हुई माँ जगदम्बा साक्षात् सौम्य रूप में उपस्थित थी, भगवती का कान्तियुक्त चेहरा मंद मंद मुस्कुरा रहा था, शेर अपलक नज़रों से मेरी ओर ताक रहा था, और पुरे कमरे में एक विशेष प्रकार की सुगंध व्याप्त हो गयी थी |



यह दृश्य लगभग २-३ मिनट तक रहा, मेरा गला भर आया, मुँह से प्रयत्न करने पर भी कुछ शब्द नहीं निकल पा रहे थे, फिर भी मेरे मंह से बस इतना ही निकला - 


रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि..”, और इतना बोलते ही माँ के हाथ में जो माला थी उन्होंने मेरी ओर फेंक दी, और दुसरे ही क्षण वह दृश्य अंतर्ध्यान हो गया |

जब ध्यान आया तो मैंने अपने शरीर को देखा, दाहिने हाथ में माला उसी प्रकार से फिर रही थी, सामने जग्दमं का चित्र विद्यमान था, मेरी आँखों से अश्रु धार बह रहे थे और रों-रों पुलकित हो रहा था.. परन्तु माँ की दी हुई वह माला मेरी गोदी में ही राखी हुई थी जो कि घटित घटना की साक्षी थी, मंत्र जप थोडा सा ही बांकी था, मैंने पूरा किया और माँ के सामने साष्टांग दण्डवत् लेट गया, सारा शरीर थरथरा रहा था.. सारा शरीर थरथरा रहा था.. आँखों में प्रसन्नता के आंसू छलछला रहे थे.. गला भर गया था, ह्रदय गदगद हो रहा था, और आँखें माँ के चरणों में टिकी हुई थी...



कितनी देर मैं इसी स्थिति में वहां रहा कुछ पता नहीं, वे मेरे जीवन के अद्वितीय क्षण थे, इसके बाद मैंने वह दिव्य माला माँ के चित्र को पहना दी |



इस समय प्रातः के लगभग पांच बज गये थे, मैंने अपने परिवार में सबको जगाया, प्रसन्नता के मारे मेरे पाँव जमीन पर टिक नहीं रहे थे, जल्दी जल्दी परिवार के सभी लोग स्नान आदि कर पूजा कक्ष में आए तो महसूस किया की वह कमरा एक विशेष गंध से आपूरित है दिव्य माला को देखकर सभी भाव विभोर हो गये |



इस घटना को लगभग ३ महीने बीत गए हैं, और लगभग एक हजार से भी ज्यादा अधिक मेरे परिचित जन ने उस दिव्य माला के दर्शन किये हैं, वे निश्चय नहीं कर पा रहे हैं की यह किस धातु की बनी हुई है.. और ये फूल किस प्रकार के हैं ! ३ महीने होने पर भी ये मुरझाये नहीं हैं ! देश के उछोती के साधू संतों ने भी इसके दर्शन किये हैं उन्होंने कहा है की उसे देखकर एक अपूर्व शांति का अनुभव होता है |



आश्चर्य की बात यह भी है की जिस रात्री को मुझे माँ जगदम्बा के दर्शन हुए, दुसरे दिन प्रातः काल ही गुरूजी का सन्देश मिल गया था, जिसमे लिखा है- 

साधना में सफलता एवं जगदम्बा दर्शन हेतु आशीर्वाद 


कहना न होगा, इन ३ महीनों में मेरा व्यापार काफी बढ़ा है.., और आश्चर्य की बात तो यह है की मेरे सभी मुक़दमे सामने वाली पार्टी ने स्वतः ही हटा लिए हैं | 

वास्तव में मैं अपने जीवन को धन्य समझने लगा की गुरु कृपा से मुझे जगदम्बा के साक्षात् दर्शन हुए, मेरा रोम-रोम उनके प्रति नमन है |

- Kunnu Bhai Hari Bhai. 

Friday, January 17, 2014

जब नाभि में कमल दल खिल उठा...



एक बार बाबा काशी के पुरातन आश्रम में विराजमान थे. प्रातः ८ बजे के लगभग सत्संग में उपस्थित चार पांच व्यक्तियों में – जिनमे से एक मैं भी था- पौराणिक विषय लेकर वार्तालाप चल रहा था. एक ने कहा – पुराणों में बहुत सी अलौकिक तथा अविश्वसनीय बातें भरी पड़ी हैं. दृष्टांत स्वरुप विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति जैसे प्रसंग लिए जा सकते हैं, यह सब कल्पना अथवा रूपक भाव है. 
इसपर बाबा ने कहा जो वस्तु तुम्हारे बुद्धि के बाहर है उसी को तुम अस्वीकार करते हो, विश्वास नहीं कर सकते, परन्तु सत्य वस्तु सत्य ही रहती है ! 

नाभि में कमल है, ‘क्या तुम इसे मान सकते हो ?’ 

उस व्यक्ति ने कहा, “मेरा तो अनुभव है या नहीं, किन्तु कोई वैज्ञानिक डॉक्टर भी इसे नहीं मानेगा. 

उन्होंने कहा की तुम्हारे डॉक्टर कितना जानते हैं ? देह तत्त्व अत्यंत गंभीर है, क्या प्रत्यक्ष देखना चाहते हो ? 

वह बोला बाबा.. प्रत्यक्ष देखने का अवसर कहाँ ?? इसलिए विश्वास तो होता नहीं..

बाबा बोले देखो न – यह कहकर जिस पलंग पर वे बैठे हुए थे उसमे तकिये की टेक लगाकर अपना नाभि प्रदेश खोल दिया और उसे हाथ से हिलाने लगे. पहले उस स्थान पर गहरा खोखला गड्ढा हो गया.. फिर उसने रक्तिम वर्ण धारण कर लिया. तदनंतर शनैः शनैः उस स्थान से एक डेढ़ फुट लम्बा कमल नाल निकला जिसके ऊपर अत्यंत सुन्दर कमल पुष्प था उसकी गंध से पूरा कमरा सुवासित हो उठा. हम सभी यह देखकर मंत्र मुग्ध से बैठे रहे. 

बाबा बोले, इस समय सूर्य का तेज अधिक नहीं है, नहीं तो यह कमल छत तक पहुँच जाता. थोड़ी देर बाद वह कमल नाल सहित धीरे-धीरे संकुचित होकर नाभि में प्रवेश कर गया, अंत में बाबा ने हाथ से पेट दबाकर नाभि को पूर्वावस्था में कर दिया, और कहा, देखो इसी प्रकार नाभि में रक्त, श्वेत, तथा नील वर्ण के असंख्य कमल विद्यमान हैं, योग में अत्यंत उच्चकोटि में प्रविष्ट न होने पर यह अनुभव नहीं मिलता, इसीलिए ऋषियों के वाक्य में विश्वास रखना चाहिए. योग्यता लाभ करने पर इन विषयों का अनुभव स्वतः हो जाता है.
                                                       
                                                                                                                                                                                                                                                        - मनीषी की लोक यात्रा से.  



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वे शारीर से मनचाही गंध पैदा कर देते थे

एक बार गुरुदेव स्वामी विशुद्धानन्दजी(सिद्धाश्रम स्पर्शित महायोगी) तीनतल्ले बंगले वाले आश्रम में ठहरे हुए थे, बंगले में बरामदा था. एक दिन वहीँ आराम कुर्सी पर बैठे हुए थे. प्रसंगवश सत्संग वालों में मैंने कहा – “बाबा, जैसे आपके शारीर से निरंतर गंध निकलता है वैसे ही श्री कृष्ण वसुदेव तथा चैतन्य महाप्रभु के देह से भी अनवरत गंध प्रसारित होते रहने का वर्णन शाश्त्रों तथा भक्त्चरितों में मिलता है . भगवान बुद्ध के निवास स्थान का इसी कारण से ‘गन्धकुटी’ नाम ही पड़ गया था जिसका मर्म न समझ पाने से European researchers ने इसे अर्पित किये गए पुष्पों के गंध का प्रभाव ही माना है. चैतन्य महाप्रभु के शरीर से पद्मगंध निकलता था. कहा जाता है की एक बार अपने शिष्य गोविन्द दास के साथ पर्यटन करते हुए दक्षिण देश में गये. यहीं एक पहाड़ पर वे किसी गृहस्थ के घर ठहरे. उस परिवार के करता तथा उसकी पत्नी की चैतन्य महाप्रभु में प्रगाढ़ भक्ति हो गयी. पत्नी नित्य पूजन तथा कीर्तन से इनकी अभ्यर्चना करने लगी. 

एक दिन वह बोली, “प्रभु, आप तो भगवन हैं. मेरा उद्धार करियेगा.”

महाप्रभु बोले, “भोली, मैं भगवान कैसे हो गया ? यह तेरा भ्रम भाव है.”


उसने कहा, “भगवान आप अपने को छिपा नहीं सकते. आपके शरीर से निरंतर विद्युत शक्ति प्रवाहित होती रहती है. इसी से मैं पहचान गयी.”



महाप्रभु ने निरुत्तर होकर उसकी अभिलाषा पूरी करने का आश्वासन दिया. प्रसिद्ध है की महाप्रभु स्वयं श्री कृष्ण के शरीर से निकली हुई गंध से निकली हुई गंध से उनकी दिव्य उपस्थिति का आभास लगाकर प्रियतम को खोजते-खोजते उन्मत्त हो जाते थे. ‘चैतन्य चरितामृत’ (मध्यलीला) में इस गंध का वर्णन करते हुए कहा गया है-



हैन श्री कृष्ण अंग गंध
जै पाये से सम्बन्ध
तीर नासा भास्मादी सामान |

यह सुनकर बाबा बोले, “क्या इस सुगंधी के प्रकार का भी कुछ विवरण तुम्हें मिला है ? मैंने कहा, “हाँ ! नील कमल, तुलसी मंजरी, मृग मद, श्वेत चंदानादी छः द्रव्यों के समिश्रण से जो सुगंध उत्पन्न होगी वह श्री कृष्ण के देह से निकलने वाली सुगंध का आभास मात्र है. ऐसा शाश्त्रों में उल्लेख अत है.” हम लोगों के देखते-देखते बाबा ने शुन्य में झटका देकर एक-एक करके उपर्युक्त छः पदार्थ एकत्र कर लिए, फिर उनके मिश्रण से शाश्त्रोक्त अपूर्व गंध तैयार कर दिया. मैंने निवेदन किया- बाबा ! हमारी इच्छा है की हम इस गंध को कुछ समय तक अपने पास रखें, ऐसी व्यवस्था कर दीजिये. बाबा ने एक शीशी लेन को कहा, मैं एक Homeopathy दवा वाली शीशी ले आया. बाबा ने अपनी लोकोत्तर श्रृष्टि प्रक्रिया से उस गंध को तेल में परिवर्तित करके शीशी में भर दिया. वह मेरे पास बहुत दिनों तक रही. हम उस गंध को सूंघ-सूंघकर भाव विभोर हो जाते थे.



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और न जाने क्यूँ आँखें भर आयीं

जब अमेरिका से गुरुवर डॉ॰ श्रीमाली विदा होने को थे, तो मैं सप्ताह भर से अनमनी सी थी, न खाने को जी कर रहा था, और न कुछ अच्छा लग रहा था, हर क्षण गुरूजी के बारे में ही सोचती रहती. उनकी व्याघ्रवत् चाल और खनखनाती हुई हंसी ने मुझे बाँध सा दिया था.

एक दिन एकांत पाकर मैंने कहा- गुरूजी ! पिछले महीने डेढ़-महीने मैं आपके साथ रही हूँ, और इस अवधि का प्रत्येक क्षण स्वर्णिम हो गया है, जगमगा गया है, आपके बारे में मैं अछि तरह से जान गयी हूँ की आप कोई सिद्ध पुरुष हैं, या कोई ऊँचे आश्रम के अधिष्ठाता हैं, और किसी उद्देश्य विशेष से ही गृहस्थ में हैं, पर अपने आपको छिपाकर क्यों रखते हैं ? अपने आपको सामान्य स क्यों बनाये रखते हैं आप ? 



गुरुदेव मुस्कुरा दिए, बोले- “इसी में ठीक है, न तो मैं भीड़-भाड़ पसंद करता हूँ और ना ही शिष्यों की भारी भर्खम फ़ौज मुझे अच्छी लगती है. मैं तो सीधा-सादा आदमी हूँ और सीधे-सादे तरीके से ही रहना चाहता हूँ. मैं क्या हूँ, ये तो मेरे जाने के बाद ही दुनिया को पता चलेगा."


“तो क्या आप चले जायेंगे ?”, मैं अचानक भाव विह्वल हो उठी- “हम सबको छोड़ देंगे, क्या वापस सिद्धाश्रम चले जायेंगे ?”


“हाँ, हिल्डा ! मुझे ये शान-शौकत, रंग-राग, ऐश-आराम, भोग-विलास कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो प्रकृति का जीव हूँ, उन्मुक्त प्रकृति में ही विचरण करना चाहता हूँ. चांदनी रात में जमीन पर बिना बिछौने के पत्थर का सिराहना देकर सो जाना बहुत अच्छा लगता है. मैं तो तुम्हारी दुनिया का कुछ दिनों का मेहमान हूँ. सन् ८५ में मैं पुनः चला जाऊंगा(पुराने साधकों को ज्ञात होगा, गुरुदेव ने पहले ही जाने की तैय्यारी कर ली थी परन्तु फिर विचार आगे कर दिया), मैं तो पल-प्रतिपल गुरु के संकेत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ."


और मैं सुनकर स्तब्ध सी रह गयी, गला रुंध गया.. होंठ थरथरा उठे, और न जाने क्यूँ आँखें भर आयीं !


-                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   - Hilda. 

Wednesday, January 15, 2014

Yagyopaveet - Upnayan Sanskaar



What is Yagyopavit/Janeou/ Holy Thread ? How do I use it?

'Yagyopaveet' is a symbol of the righteous path and divine protection. At birth, a human being is as good or as bad as an animal. It is only through the rites of initiation (Diksha sanskars), that he truly becomes a human being. Yagyopaveet is granted to the initiates during personal Diksha sessions. Diksha is the second birth of the person after destruction of his past sins.

Yagyopaveet also signifies one bound in duty (vrat bandhan). After performing this rite a man is bound by certain rules. This sacred thread infuses longevity and strength into a person's life.

The three strands of the thread are symbolical. They represent the three Gunas (qualities) namely Sattva , Rajas and Tamas. The three strands remind the wearer that he has to pay off his debt to the ancient seers, his ancestors and the gods. He is to honour his parents and elders and has started on the path of spiritual and material upliftment.

You should  wear it during any auspicious moment, sadhana and on the auspicious days.
The Yagyopaveet is ritualistically maintained :

1. A man should wear the sacred thread hanging from his right shoulder.

2. It should be lifted and the upper part should be put behind ears when a person goes for his daily ablutions or doing impure tasks. It should be put back properly on shoulder only after one has purified himself by washing etc..

3. Both males and females can wear it. However, the woman should wear it on the neck like a rosary after folding/doubling it. Otherwise, she may wrap it on a naariyal (brown coconut), and place the naariyal in worship place.

4. After a birth or death in the family/relations/friend circle , it should be taken out. A new thread should be worn 15 days after the event.

5. Old, or broken thread should be replaced, and it can be put on a tree or dropped in a running stream of water.

6. Yagyopaveet should be changed on Shravan Poornima.

7. There are some specific rituals like Daan/Tarpan to Ancestors, offering Ardhya (water) to Sun God etc., in which Yagyopavit is wound around the Second (largest) finger and Third (ring) finger of right hand.


You should chant the following Mantra while wearing the Yagyopaveet (Janeo):

Om Yagyopavitam Param Pavitram Prajaapateryatsahajam Purastaat |
Aayushyamagrayam Pratimunch Shubhram Yagyopavitam Balamastu Tejah ||

If taking off, the Yagyopaveet should be taken off through the neck only whilest chanting this mantra-


Om Aetaavad Dinparyant Bhrahmatav Dhaaritam Mayaa
Jeerntvaattey parityaago gacch sutra yathaasukham |


साधक यदि चाहे तो इसे माला की तरह गले में दो बार करके भी धारण कर सकता है. इससे ये हर परिस्थिति में पवित्र रहता है, नित्य कार्य करते समय भी यज्ञोपवीत के पवित्रता-अपवित्रता को लेकर चिंता नहीं रहती.

Monday, January 13, 2014

Guru Quotes



जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.

                                                                           ***

गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.

                                                                           ***

उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.

                                                                           ***

पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.

                                                                           ***

तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.

                                                                           ***

तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.

                                                                           ***

शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.

                                                            ***