एक बार बाबा काशी के पुरातन आश्रम में विराजमान थे. प्रातः ८ बजे के लगभग सत्संग में उपस्थित चार पांच व्यक्तियों में – जिनमे से एक मैं भी था- पौराणिक विषय लेकर वार्तालाप चल रहा था. एक ने कहा – पुराणों में बहुत सी अलौकिक तथा अविश्वसनीय बातें भरी पड़ी हैं. दृष्टांत स्वरुप विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति जैसे प्रसंग लिए जा सकते हैं, यह सब कल्पना अथवा रूपक भाव है.
इसपर बाबा ने कहा जो
वस्तु तुम्हारे बुद्धि के बाहर है उसी को तुम अस्वीकार करते हो, विश्वास नहीं कर
सकते, परन्तु सत्य वस्तु सत्य ही रहती है !
नाभि में कमल है, ‘क्या तुम इसे मान
सकते हो ?’
उस व्यक्ति ने कहा, “मेरा तो अनुभव है या नहीं, किन्तु कोई वैज्ञानिक
डॉक्टर भी इसे नहीं मानेगा.
उन्होंने कहा की तुम्हारे डॉक्टर कितना जानते हैं ?
देह तत्त्व अत्यंत गंभीर है, क्या प्रत्यक्ष देखना चाहते हो ?
वह बोला बाबा.. प्रत्यक्ष देखने का अवसर कहाँ ?? इसलिए विश्वास तो होता नहीं..
वह बोला बाबा.. प्रत्यक्ष देखने का अवसर कहाँ ?? इसलिए विश्वास तो होता नहीं..
बाबा
बोले देखो न – यह कहकर जिस पलंग पर वे बैठे हुए थे उसमे तकिये की टेक लगाकर अपना
नाभि प्रदेश खोल दिया और उसे हाथ से हिलाने लगे. पहले उस स्थान पर गहरा खोखला
गड्ढा हो गया.. फिर उसने रक्तिम वर्ण धारण कर लिया. तदनंतर शनैः शनैः उस स्थान से
एक डेढ़ फुट लम्बा कमल नाल निकला जिसके ऊपर अत्यंत सुन्दर कमल पुष्प था उसकी गंध से
पूरा कमरा सुवासित हो उठा. हम सभी यह देखकर मंत्र मुग्ध से बैठे रहे.
बाबा बोले,
इस समय सूर्य का तेज अधिक नहीं है, नहीं तो यह कमल छत तक पहुँच जाता. थोड़ी देर बाद वह कमल नाल सहित धीरे-धीरे संकुचित होकर नाभि में प्रवेश कर गया, अंत में बाबा ने
हाथ से पेट दबाकर नाभि को पूर्वावस्था में कर दिया, और कहा, देखो इसी प्रकार नाभि
में रक्त, श्वेत, तथा नील वर्ण के असंख्य कमल विद्यमान हैं, योग में अत्यंत
उच्चकोटि में प्रविष्ट न होने पर यह अनुभव नहीं मिलता, इसीलिए ऋषियों के वाक्य में
विश्वास रखना चाहिए. योग्यता लाभ करने पर इन विषयों का अनुभव स्वतः हो जाता है.
- मनीषी
की लोक यात्रा से.
***
वे शारीर से मनचाही गंध पैदा कर देते थे
एक
बार गुरुदेव स्वामी विशुद्धानन्दजी(सिद्धाश्रम स्पर्शित महायोगी) तीनतल्ले बंगले वाले आश्रम में ठहरे हुए थे,
बंगले में बरामदा था. एक दिन वहीँ आराम कुर्सी पर बैठे हुए थे. प्रसंगवश सत्संग
वालों में मैंने कहा – “बाबा, जैसे आपके शारीर से निरंतर गंध निकलता है वैसे ही
श्री कृष्ण वसुदेव तथा चैतन्य महाप्रभु के देह से भी अनवरत गंध प्रसारित होते रहने
का वर्णन शाश्त्रों तथा भक्त्चरितों में मिलता है . भगवान बुद्ध के निवास स्थान का
इसी कारण से ‘गन्धकुटी’ नाम ही पड़ गया था जिसका मर्म न समझ पाने से European researchers ने इसे अर्पित किये गए पुष्पों के गंध का प्रभाव ही माना
है. चैतन्य महाप्रभु के शरीर से पद्मगंध निकलता था. कहा जाता है की एक बार अपने
शिष्य गोविन्द दास के साथ पर्यटन करते हुए दक्षिण देश में गये. यहीं एक पहाड़ पर वे
किसी गृहस्थ के घर ठहरे. उस परिवार के करता तथा उसकी पत्नी की चैतन्य महाप्रभु में
प्रगाढ़ भक्ति हो गयी. पत्नी नित्य पूजन तथा कीर्तन से इनकी अभ्यर्चना करने लगी.
एक
दिन वह बोली, “प्रभु, आप तो भगवन हैं. मेरा उद्धार करियेगा.”
महाप्रभु बोले, “भोली, मैं
भगवान कैसे हो गया ? यह तेरा भ्रम भाव है.”
उसने कहा, “भगवान आप अपने को छिपा नहीं सकते. आपके शरीर से निरंतर विद्युत शक्ति प्रवाहित
होती रहती है. इसी से मैं पहचान गयी.”
महाप्रभु ने निरुत्तर होकर
उसकी अभिलाषा पूरी करने का आश्वासन दिया. प्रसिद्ध है की महाप्रभु स्वयं श्री
कृष्ण के शरीर से निकली हुई गंध से निकली हुई गंध से उनकी दिव्य उपस्थिति का आभास
लगाकर प्रियतम को खोजते-खोजते उन्मत्त हो जाते थे. ‘चैतन्य चरितामृत’ (मध्यलीला)
में इस गंध का वर्णन करते हुए कहा गया है-
हैन श्री कृष्ण अंग गंध
जै पाये से सम्बन्ध
तीर नासा भास्मादी सामान |
यह सुनकर बाबा बोले, “क्या इस सुगंधी के प्रकार का भी कुछ विवरण तुम्हें मिला
है ? मैंने कहा, “हाँ ! नील कमल, तुलसी मंजरी, मृग मद, श्वेत चंदानादी छः द्रव्यों
के समिश्रण से जो सुगंध उत्पन्न होगी वह श्री कृष्ण के देह से निकलने वाली सुगंध
का आभास मात्र है. ऐसा शाश्त्रों में उल्लेख अत है.” हम लोगों के देखते-देखते बाबा
ने शुन्य में झटका देकर एक-एक करके उपर्युक्त छः पदार्थ एकत्र कर लिए, फिर उनके
मिश्रण से शाश्त्रोक्त अपूर्व गंध तैयार कर दिया. मैंने निवेदन किया- बाबा ! हमारी
इच्छा है की हम इस गंध को कुछ समय तक अपने पास रखें, ऐसी व्यवस्था कर दीजिये. बाबा
ने एक शीशी लेन को कहा, मैं एक Homeopathy दवा वाली शीशी ले आया. बाबा
ने अपनी लोकोत्तर श्रृष्टि प्रक्रिया से उस गंध को तेल में परिवर्तित करके शीशी
में भर दिया. वह मेरे पास बहुत दिनों तक रही. हम उस गंध को सूंघ-सूंघकर भाव विभोर
हो जाते थे.
***
और न जाने क्यूँ आँखें भर
आयीं
जब अमेरिका से गुरुवर डॉ॰
श्रीमाली विदा होने को थे, तो मैं सप्ताह भर से अनमनी सी थी, न खाने को जी कर रहा
था, और न कुछ अच्छा लग रहा था, हर क्षण गुरूजी के बारे में ही सोचती रहती. उनकी
व्याघ्रवत् चाल और खनखनाती हुई हंसी ने मुझे बाँध सा दिया था.
एक दिन एकांत पाकर मैंने
कहा- गुरूजी ! पिछले महीने डेढ़-महीने मैं आपके साथ रही हूँ, और इस अवधि का प्रत्येक
क्षण स्वर्णिम हो गया है, जगमगा गया है, आपके बारे में मैं अछि तरह से जान गयी हूँ
की आप कोई सिद्ध पुरुष हैं, या कोई ऊँचे आश्रम के अधिष्ठाता हैं, और किसी उद्देश्य
विशेष से ही गृहस्थ में हैं, पर अपने आपको छिपाकर क्यों रखते हैं ? अपने आपको
सामान्य स क्यों बनाये रखते हैं आप ?
गुरुदेव मुस्कुरा दिए, बोले- “इसी में ठीक है, न तो मैं भीड़-भाड़ पसंद करता हूँ और
ना ही शिष्यों की भारी भर्खम फ़ौज मुझे अच्छी लगती है. मैं तो सीधा-सादा आदमी हूँ और
सीधे-सादे तरीके से ही रहना चाहता हूँ. मैं क्या हूँ, ये तो मेरे जाने के बाद ही
दुनिया को पता चलेगा."
“तो क्या आप चले जायेंगे ?”,
मैं अचानक भाव विह्वल हो उठी- “हम सबको छोड़ देंगे, क्या वापस सिद्धाश्रम चले
जायेंगे ?”
“हाँ, हिल्डा ! मुझे ये शान-शौकत, रंग-राग, ऐश-आराम, भोग-विलास कुछ भी अच्छा नहीं
लगता. मैं तो प्रकृति का जीव हूँ, उन्मुक्त प्रकृति में ही विचरण करना चाहता हूँ.
चांदनी रात में जमीन पर बिना बिछौने के पत्थर का सिराहना देकर सो जाना बहुत अच्छा
लगता है. मैं तो तुम्हारी दुनिया का कुछ दिनों का मेहमान हूँ. सन् ८५ में मैं पुनः
चला जाऊंगा(पुराने साधकों को ज्ञात होगा, गुरुदेव ने पहले ही जाने की तैय्यारी कर
ली थी परन्तु फिर विचार आगे कर दिया), मैं तो पल-प्रतिपल गुरु के संकेत की प्रतीक्षा
कर रहा हूँ."
और मैं सुनकर स्तब्ध सी रह
गयी, गला रुंध गया.. होंठ थरथरा उठे, और न जाने क्यूँ आँखें भर आयीं !
- - Hilda.
Who is hilda?
ReplyDeleteSadgurudev had many disciples and followers abroad also.. this fortunate lady is from America and this is her quotations, about Guruji, from her diary.
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