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Tuesday, January 28, 2014

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेवं समर्पयेत्



कुण्डलिनी जागरण मंत्र- 



ॐ ह्रीं मम प्राण देह रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय ह्रीं ॐ नमः ||


सिद्ध स्फटिक माला से, गुरु चित्र सामने रखकर, सवा लाख मंत्र जाप करने से शरीर की जड़ता समाप्त होकर कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया बनती है |

२). सर्व कार्य सिद्धि मंत्र -

आर्थिक रूप से सम्पन्नता प्राप्त करने के लिए, व्यापार में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए, इस मंत्र को दीपावली की रात्री २१ माला मूँगे की माला से जप करें यह मंत्र सिद्ध हो जाता है, फिर इसके बाद नित्य उसी माला से इसकी एक माला फेरते रहे, तो जिस भी कार्य को करे उसमे पूर्ण सफलता मिलती रहती है | इसके लिए ये अनिवार्य है की माला मंत्र प्रनाश्चेतना युक्त हो और असली मूँगे की माला हो, बाज़ार में २०० रुपये में सस्ती माला मूँगा कहके बेचते हैं उससे सफलता नहीं प्राप्त की जा सकती |

ॐ नमो महादेवी सर्व कार्य सिद्धकरणी जो
पाती पूरे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवतन
मेरी शक्ति गुरु की भक्ति श्री गुरु गोरखनाथ
की दुहाई फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा |


३). वशीकरण प्रयोग -  

यह आश्चर्यजनक वशीकरण साबर मंत्र है इसके द्वारा मनुष्य तो क्या पत्थर को वश में किया जा सकता है | सफ़ेद धोती में सफ़ेद आसन पर बैठकर निम्न मंत्र की २१ माला १७ दिन नित्य सिद्ध हकीक माला या स्फटिक माला से फेरे, और अमुक के स्थान पर उसका नाम ले, जिसको वश में करना हो | बगल में धी का दीपक प्रज्ज्वलित करे, लोहबान धुप सुलगा ले | इसका दुरूपयोग न करे और न किसी और को बतावे अन्यथा असर ख़त्म समझे | जिनकी गुरु के प्रति दृढ़ आस्था है उनपर भी ऐसे प्रयोग काम नहीं करते उल्टा गलत परिणाम चाहने पर ही विपत्ती आती है |

काली केश कटारिणी नव-नव धावे रूप
सिद्ध होए कारज करे (अमुक) को वश में करे
सात ताले तोड़ हाजर करे जो न करे तो
तेरो कलेजो काली फाड़ खावे ठं ठं फट् ||


*********************त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेवं समर्पयेत्*********************

विदाई का क्षण था.. योगी निखिलेश्वरानंद जी भारी मन से गुरु चरणों से अलग होने को बाध्य हो रहे थे, गुरु ने आज्ञा दी की तुम्हें जो मैंने काम सौंपा है उसको पूरा करना है, पर निखिलेश्वरानंद जी की आत्मा छटपटा रही थी, वे एक क्षण के लिए भी गुरु चरणों से अलग नहीं होना चाहते थे | उनके शरीर का रोम-रोम गुरु चरणों पर व्याप्त था, पर गुरु की आज्ञा भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी !



निखिल का शरीर उनके चरणों पर टिका हुआ था | गुरु ने अपने दोनों बाँहों से उसे ऊपर उठाया, आँसुओं से भरे चेहरे को अपनी ओर किया और बोले- तू मेरा सर्वाधिक प्रिय शिष्य है, और मैं तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर अत्यंत गौरव अनुभव कर रहा हूँ, साधना और सेवा का तूने जो उदाहरण उपस्थित किया है, वह दुर्लभ है, मैं आज तुम पर अत्यधिक प्रसन्न हूँ, तू आज जो भी माँगेगा सहर्ष दूंगा, दुनिया की कोई भी शक्ति, कुछ भी तू माँग सकता है |



निखिल ने एक क्षण के लिए गुरु के चेहरे की ओर देखा, और फिर नज़रें चरणों पर टिका कर बोला, जब आप मेरे पास हैं तब मैं और क्या चाहना करूँ ? जब मैं अपने आपको आपके चरणों में लीन कर ही चुका हूँ तो फिर मेरा अस्तित्व ही कहाँ रह गया है ? और जब मेरा अस्तित्व ही नहीं है तो मैं क्या माँगू ? यह शरीर, मन, प्राण, देह, रोम, प्रतिरोम, सब कुछ ही तो आपका है.. 

“त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेवं समर्पयेत्..”

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